आज पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन का शिकार हो रहा है. दिनों-दिन वर्षा कम और बेमौसम हो रही है.जल संकट गहराता जा रहा है. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण झारखंड के दुमका जिला अंतर्गत शिकारीपाड़ा, रानीश्वर, गोपीकांदर एवं काठीकुंड आदि इलाकों के पहाड़ियों पर सदियों जीवन यापन कर रहे आदिम जनजाति पहाड़ियां समुदाय पर भी इसका सीधा असर दिख रहा है.
जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों के कारण संकटग्रस्त समुदाय माना जाने वाला पहाड़िया समुदाय जिसकी जनसंख्या वृद्धि ऋणात्मक है. उनकी सदियों पुरानी देशज-ज्ञान और खेती-बाड़ी, भोजन- पद्धति संकटग्रस्त हो गया है. इसकी सबसे बड़ी वजह हाल के कुछ वर्षों से इस इलाके में असमय और कम बारिश है. पहले यहां लंबे समय तक बारिश हुआ करती थी. अब जलवायु परिवर्तन की वजह से उसका समय कम हो गया है और उसकी गति तेज हो गई है. ऐसे में जहां लंबे समय तक होने तक होने वाली बारिश से पहाड़ और जमीन में पानी धीरे-धीरे समाता जाता था,वाटर लेबल का रिचार्ज होता था, वह तेज वजह से बह जाता है. मौसम का यह खतरनाक प्रचलन दुमका समेत संताल परगना के इलाके में कुछ वर्षों से दिख रही है. जिसके कारण पहाड़ पर नहीं खत्म हो गई है.
वर्तमान में, पहाड़ों के ऊपर उगने वाले फलों, मशरुम और पत्तेदार सब्जियों की स्वादेशी किस्में पिछले दो दशकों में उनकी उपलब्धता कम हो गई है. पहाड़ के ऊपर बहने वाले निश्चल झरनों में देशी मछलियों,जो अतीत में पहाड़िया समुदाय द्वारा अक्सर खाई जाती थी. और उसी से उचित मात्रा में पोषक तत्व मिल जाता था,अब नदियों, झरनों और तालाबों के सूखने कारण वह दुर्लभ हो गई है. पानी की कमी के कारण पहाड़ पर जीवन की बुनियादी सुविधाओं जैसे पीने, खाना पकाने,स्रान, सफाई आदि जैसे अन्य कामों के लिए भी काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता रहा है. मौसम में इस बदलाव के कारण पहले की तुलना में ( जंगल और पहाड़ में) उपज की मात्रा काफी कम हो गई है. पहाड़िया समुदाय की प्राचीन काल से चली आ रही पहाड़ और जंगल पर परंपरागत खेती बरबटी, मक्का सरसों,कुरथी, मडुवा,ज्वार, बाजरा,गोंदली, कोदवा जैसे मोटे अनाज अब बहुत कम उपज हो रही है. पहाड़ की तलहटी पर अरहर,उरद, मूंग, मूंगफली,तिल की उपज भी अब कम हो रही है. सबसे बड़ी बात यह है कि अनाज पौष्टिक तत्वों से भरपूर होते है. आज इन्हीं अनाज को उपभोक्तावादी संस्कृति में मिलेटस के नाम से बेचा जा रहा है. यह कहना उचित होगा कि मौसम की मार अगर कोई समुदाय सीधी तौर पर प्रभावित हो रहा है,तो वह लुप्तप्राय: पहाड़िया जनजाति है, जिनका पूरा जीवन सहचार्य ही पहाड़ पर आधारित है.
( स्रोत: पर्यावरण संवाद) ।
संकलन: कालीदास मुर्मू, आदिवासी परिचर्चा।
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