यह निर्णय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244, अनुच्छेद 13 और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा एक्ट) का उल्लंघन करता है. यह भी ध्यान देने की बात है कि आदिवासी समुदाय में अचल संपत्ति (जमीन) को परिवार की सामुदायिक संपत्ति माना जाता है न कि व्यक्तिगत मिल्कियत.
यह मामला छत्तीसगढ़ में एक अनुसूचित जनजाति गोंड समुदाय से संबंधित है. याचिकाकर्ता जो एक आदिवासी महिला धैया के कानूनी उत्तराधिकारी ने अपने दादा की संपत्ति में हिस्सा मांगा था. निचली अदालतों और छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने इस दावा खारिज कर दिया और तर्क देते हुए कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 2 (2) के तहत आदिवासी समुदायों पर यह कानून लागू नही होता है और कोई प्रथागत नियम नही है जो महिलाओं को संपत्ति में हिस्सा देता हो.
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ जिसमें जस्टिस संजय करोल और जस्टिस जॉयमाल्या बागची शामिल थे, इन्होंने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि यदि कोई प्रथागत नियम महिलाओं को संपत्ति में हिस्सा देने से रोकता नही है तो केवल पुरुषों को उत्तराधिकार देने का कोई तर्कसंगत आधार नही है। कोर्ट ने निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर जोर दिया.
1.लैंगिक समानता और संवैधानिक अधिकार: -
कोर्ट ने कहा कि केवल पुरुषों को संपत्ति में हिस्सा देना और महिलाओं को वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 15(1) (लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध) का उल्लंघन है. कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि अनुच्छेद 38 और 46 के तहत संविधान सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने का निर्देश देता है और महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करना इसका हिस्सा है.
2. प्रथाओं का विकास:-
कोर्ट ने जोर दिया कि प्रथाएं समय के साथ स्थिर नही रह सकती हैं. यदि कोई प्रथा महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से वंचित करती है, तो उसे बदलना होगा. कोर्ट ने कहा, "प्रथाएं भी कानून की तरह समय में स्थिर नही रह सकती हैं और दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए प्रथाओं का सहारा नही लिया जा सकता है.
3. न्याय,समता और सद्विवेक : -
उच्चतम न्यायालय ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के 2019 के फैसले का समर्थन किया, जिसमें सेंट्रल प्रोविंसेज लॉज एक्ट,1875 के तहत "न्याय, समता और सद्विवेक" के सिद्धांतों को लागू किया गया था. इस सिद्धांत के आधार पर कोर्ट ने आदिवासी महिला के उत्तराधिकारियों को संपत्ति में बराबर हिस्सा दिया.
4. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की सीमाएं:-
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम,1956 की धारा 2 (2) में प्रावधान है कि यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नही होता है. जब तक कि केंद्र सरकार अधिसूचना के माध्यम से इसे लागू न करे. कोर्ट ने इस प्रावधान को लैंगिक समानता के खिलाफ माना और केंद्र सरकार से इस पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया.
इस पर मेरा कहना है कि संवैधानिक प्रावधानों और पेसा एक्ट की अनदेखी की गई है, फिर भी इस मामले में तुलनात्मक बातों पर गौर किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 244, अनुच्छेद 13 और पेसा एक्ट का उल्लंघन करता है.
अनुच्छेद 244(1) पांचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासन और नियंत्रण के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करता है, जिसमें अनुसूचित जनजातियों की सांस्कृतिक और सामाजिक प्रथाओं की रक्षा के लिए राज्यपाल को विशेष शक्तियां दी गई हैं. अनुच्छेद 244 का उद्देश्य आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को संरक्षित करना है, लेकिन यह लैंगिक भेदभाव को बनाए रखने का आधार नही हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि यदि कोई प्रथा लैंगिक समानता के खिलाफ है तो उससे अनुच्छेद 14 और 15 के अधीन होना होगा. अनुच्छेद 244 में ऐसा कोई प्रावधान नही है जो लैंगिक भेदभाव को संरक्षित करता हो.
इसी तरह अनुच्छेद 13 कहता है कि कोई भी कानून या प्रथा जो संविधान के भाग III (मौलिक अधिकार) के साथ असंगत है, वह शून्य होगा जिसमें प्रथागत नियम भी शामिल हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यही सिद्धांत लागू किया कि यदि कोई प्रथा आदिवासी महिलाओं को संपत्ति अधिकारों से वंचित करती है, तो वह अनुच्छेद 14 और 15 के तहत असंवैधानिक है. कोर्ट ने अनुच्छेद 13 का उपयोग करके प्रथागत नियमों की वैधता को परखा और यह सुनिश्चित किया कि वे लैंगिक समानता के संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हो.
पेसा एक्ट का उद्देश्य अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों को सशक्त करना और आदिवासी समुदायों की प्रथाओं, संसाधनों और स्वशासन को संरक्षित करना है. यह ग्राम सभाओं को प्रथागत नियमों और सामाजिक प्रथाओं को बनाए रखने की शक्ति देता है, बशर्ते वे संविधान के अनुरूप हो.
पेसा एक्ट प्रथागत नियमों को मान्यता देता है, लेकिन यह स्पष्ट करता है कि ये नियम संविधान के अनुरूप होने चाहिए. यदि कोई प्रथा महिलाओं को संपत्ति अधिकारों से वंचित करती है तो वह अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन करती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यही तर्क दिया कि प्रथागत नियम संविधान के ऊपर नहीं हो सकते. इसलिए, यह दावा कि फैसला पेसा एक्ट का उल्लंघन करता है, तर्कसंगत नही है.
आदिवासी समुदाय में अचल संपत्ति (जमीन) को परिवार की सामुदायिक संपत्ति माना जाता है न कि व्यक्तिगत मिल्कियत. यह एक वैध बिंदु है लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला विरासत (inheritance) के संदर्भ में है जो परिवार के भीतर होता है. यदि सामुदायिक संपत्ति की अवधारणा प्रचलित है तो इस फैसले को उसी के अंदर लागू किया जा सकता है, जहाँ महिलाओं को भी समान अधिकार प्राप्त हो, कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि प्रथागत नियमों की अनुपस्थिति में लैंगिक भेदभाव को बरकरार रखना असंवैधानिक है और "न्याय, समता और सद्विवेक" के सिद्धांतों के खिलाफ है.
बेशक इस फैसले का प्रभाव और निहितार्थ को भी आदिवासी समुदाय को समझना होगा.
यह फैसला आदिवासी समुदाय की महिलाओं को हिंदू महिलाओं के समान पैतृक संपत्ति में अधिकार देता है जो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 2005 की संशोधन के तहत सह-संस्थापक (coparcener) के रुप में बराबर हिस्सा प्राप्त करती हैं.
कोर्ट ने केंद्र सरकार से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन करने और आदिवासी समुदायों पर इसकी छूट को हटाने पर विचार करने को कहा है ताकि लैंगिक समानता सुनिश्चित हो.
यह निर्णय आदिवासी समुदायों में प्रचलित लैंगिक भेदभाव को कम करने और सामाजिक समानता को बढ़ावा देने में मदद करेगा.
यह फैसला प्रथागत नियमों को संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप ढालने की आवश्यकता पर बल देता है.
इस फैसले को समझने के लिए पहले के संबंधित निर्णयों पर भी विचार करना महत्वपूर्ण है.
कमला नेती बनाम विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी (2022) इस मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी महिलाओं के संपत्ति अधिकारों पर विचार किया था और केंद्र सरकार से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन करने का आग्रह किया था. कोर्ट ने कहा था कि गैर-आदिवासी महिलाओं को मिलने वाले अधिकार आदिवासी महिलाओं को भी मिलने चाहिए.
विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2018) इस फैसले में कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के तहत बेटियों को बेटों के समान सह-संस्थापक का दर्जा दिया था, भले ही उनकी शादी हो चुकी हो या पिता की मृत्यु 2005 से पहले हुई हो.
यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट द्वारा लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए दिया गया है. इस परिस्थिति में आदिवासी समुदाय को भी इस पूरे संदर्भ में विचार मंथन करना चाहिए.
यह आदिवासी समुदाय के लिए राष्ट्रीय बहस का विषय है.
स्रोत: लक्ष्मीनारायण मुंडा, रांची, झारखंड।
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