आदिवासी समुदाय की धार्मिक पहचान : धर्मांतरण नही,स्वीकारीकरण होता है.

 


भारत के आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) समुदाय देश की सबसे प्राचीन और मूल निवासी आबादी हैं. इनकी आस्था मुख्य रुप से प्रकृति-पूजा (जल, जंगल, जमीन), पूर्वज-पूजा और स्थानीय देवताओं पर आधारित है. ये विश्वास हिंदू धर्म की मुख्यधारा वाली मूर्ति-पूजा,वर्ण-व्यवस्था या वेद-पुराण आधारित परंपराओं से पूरी तरह अलग हैं. इससे सरना (झारखंड-ओडिशा क्षेत्र),आदि धर्म, नियामत्रे (मेघालय) या दोनी-पोलो (अरुणाचल) जैसे नामों से जाना जाता है.

लेकिन भारत की जनगणना और कानूनी व्यवस्था में इन आस्थाओं को कभी अलग धर्म के रुप में मान्यता नही दी गई. 1881 से 1941 तक ब्रिटिश जनगणना में आदिवासियों को “एनिमिस्ट” या “ट्राइबल” रिलिजन के अलग कॉलम में गिना जाता था। 1951 की पहली स्वतंत्र भारत की जनगणना में भी “ट्राइब” कॉलम था, लेकिन उसके बाद इसे हटा दिया गया। अब यदि कोई आदिवासी हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध या जैन नही लिखता तो उसे स्वतः हिंदू धर्म में गिना जाता है। यह सरकारी षडयंत्र या साजिश कहा जा सकता है.

इस पर कानूनी स्थिति क्या कहती है ?

भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) की परिभाषा धर्म-आधारित नही है (अनुच्छेद 342)। कोई भी व्यक्ति जो सूचीबद्ध जनजाति में जन्मा है, वह हिंदू हो या ईसाई या मुस्लिम, उसे ST का दर्जा और आरक्षण मिलता रहता है. यह अनुसूचित जातियों (SC) से अलग है,जहाँ 1950 के राष्ट्रपति आदेश के अनुसार केवल हिंदू,सिख या बौद्ध धर्म को मानने वाले को ही SC लाभ मिलता है.

कानूनी दस्तावेजों में आदिवासियों को कभी-कभी “हिंदू” कहा जाता है (जैसे Protection of Civil Rights Act, 1955 में), लेकिन यह केवल सरकारी प्रशासनिक सुविधा के लिए है। वास्तव में आदिवासी आस्था को हिंदू धर्म का हिस्सा मानना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रुप से गलत है.

आखिर सरना धर्म कोड की मांग क्यों?

पिछले कई दशकों से आदिवासी संगठन अलग “सरना” धर्म कोड की मांग कर रहे हैं. झारखंड विधानसभा ने 2020 में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि जनगणना में सरना को अलग धर्म कोड दिया जाए. 2011 की  जनगणना में लाखों आदिवासियों ने “अन्य” कॉलम में “सरना” लिखा था, लेकिन उन्हें फिर भी हिंदू में गिना गया. हमारा मानना है कि कि जब तक अलग कोड नही मिलेगा, आदिवासियों की अलग धार्मिक पहचान आधिकारिक रुप से मिटी रहेगी और हिंदुत्ववादी संगठन उन्हें जबरन “वनवासी हिंदू” घोषित करते रहेंगे.

धर्मांतरण की बात ही बेईमानी क्यों है?

जब आदिवासी की अपनी प्राचीन आस्था को कोई मान्यता प्राप्त धर्म नही माना गया, तो वह मूल रुप से किसी धर्म में है ही नही (कागजी तौर पर वह हिंदू दिखता है, लेकिन वास्तविक आस्था अलग है. इसलिए जब वह ईसाई, मुस्लिम या किसी और धर्म को अपनाता है, तो यह उसका पहला “धर्म-स्वीकारीकरण” है, न कि किसी धर्म से दूसरे धर्म में “परिवर्तन”.

अगर कोई संथाल या मुंडा व्यक्ति सरना पूजक है और बाद में वह चर्च जाना शुरू करता है, तो इसे “हिंदू से ईसाई धर्मांतरण” कहना गलत है, क्योंकि वह पहले हिंदू था ही नही। वह केवल अपनी प्रकृति-पूजा छोड़कर एक नए संगठित धर्म को अपना रहा है.

यही बात उन आदिवासियों पर लागू होती है जो बाद में राम-कृष्ण या हनुमान की पूजा करने लगते हैं – यह भी स्वीकारीकरण ही है, धर्मांतरण नही.

हम आदिवासी  लोग शुरु से ही कहते आए हैं कि “हम हिंदू कभी थे ही नही, तो हमारा हिंदू से ईसाई होना धर्मांतरण कैसे ?”

हम स्पष्ट कहते हैं कि आदिवासी समुदाय की आस्था को अलग धर्म के रुप में मान्यता न देना एक ऐतिहासिक अन्याय है. इससे उनकी सांस्कृतिक पहचान कमजोर हुई है और धर्मांतरण के नाम पर राजनीतिक शोर किया जाता रहा है. जब तक जनगणना में सरना/आदिवासी धर्म को अलग कोड नही मिलेगा, तब तक आधिकारिक आंकड़ों में आदिवासी हमेशा “हिंदू” या “अन्य” में गुम होते रहेंगे और उनकी वास्तविक धार्मिक पहचान छिपी रहेगी.

सच्चाई यह है – आदिवासी न तो मूल रूप से हिंदू हैं, न ही उनका किसी अन्य धर्म में जाना “धर्मांतरण” है। यह केवल एक प्राचीन प्रकृति-पूजक आस्था से किसी संगठित धर्म की ओर पहला कदम है। इससे स्वीकारीकरण कहना ही तथ्यात्मक और न्यायसंगत है.

लक्ष्मीनारायण मुंडा , रांची

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