झारखंड हमेशा से संघर्ष, बलिदान एवं त्याग का प्रतीक रहा है. इस लिहाज़ से यहां आदिवासी आन्दोलन का लंबा इतिहास है.चाहे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ हो, स्वतंत्रता आंदोलन हो, चाहे झारखंड में शहादत होना और जल, जंगल, जमीन बचाने के लिए जीवन न्यौछावर करना यहां के भूमिपुत्र का जन्मगत गुण रहा है. बाबा तिलका मांझी, भगवान विरसा मुंडा,वीर बुधु भगत, टाना भगत, सिदो-कान्हू चांद-भरौव फूलो-झानो निलम्बर-पितम्बर जैसे अनाम सूपतों ने गुलामी की जंजीरों से मुक्ति के लिए संघर्ष करते हुए प्रणाहुति दे दी. अंग्रेजों के समय झारखंड में कुल 13 विद्रोह हुए थे. इन में संताल हुल प्रमुख थे. इस दौरान हजारों संताल और उनके सहयोगी को मौत के घाट उतार दिया गया. इस मार्मिक क्षण गवाह का आज भी मयुराक्षी नदी के निकट दिगुली गांव में "संताल काटा पुखुर" के रूप में है. इतिहासकार के अनुसार झारखंड में पहला जन प्रतिरोध धाल विद्रोह हुए. विद्रोह का उद्देश्य सिंहभूम और मानभूम क्षेत्रों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रगति को रोकना था. धाल विद्रोह के नाम से जाना जाने वाला संभवत यह पहला जनजातीय विद्रोह धालभूम के अपदस्थ राजा जगन्नाथ धाल के नेतृत्व में हुआ था. औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ आदिवासी प्रतिरोध के इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण क्षण था. भूमि अधिग्रहण, लगन में अप्रत्याशित वृद्धि, साहूकारों द्वारा अत्यधिक ब्याज दरें एवं भ्रष्ट अधिकारी विद्रोह के कारण बने. भोगनाडीह के दो युवक सिदो-कान्हू मुर्मू ने इस जन प्रतिरोध का नेतृत्व किया. इतिहास ने इससे " संताल हुल" कहा. बाद के दिनों में भारत में छोटानागपुर पठार - संताल परगना और इसके आसपास के क्षेत्र को अलग राज्य की मांग के साथ झारखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि बनाए गए. जब साइमन कमीशन भारत आए उन्हें भारत में एक आदिवासी राज्य गठन के लिए ज्ञापन सौंपे गए थे. जयपाल सिंह मुंडा और राम नारायण सिंह जैसे नेताओं ने राज्य पुनर्गठन आयोग से अलग राज्य की मांग की. पर आयोग ने ख़ारिज कर दी. फिर झारखंड आंदोलन के लिए चरणबद्ध कार्यक्रम की घोषणा तय किया गया. सिर्फ चुनावी रणनीति से अलग राज्य संभव नहीं है, वल्कि चुनाव को झारखंड आंदोलन का एक अंग मानते हुए इसके सामाजिक, सांस्कृतिक व भाषाई पक्षों को उचित महत्व देते हुए आंदोलन का किया जाना चाहिए. लम्बा संघर्ष और हजारों शहादत के बाद 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य अस्तित्व में आया. आज झारखंड 25 साल का युवा है. राज्य का गठन मुख्य उद्देश्य यहां के आदिवासी समुदायों के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई, शैक्षणिक और आर्थिक विकास को प्राथमिकता में रखते हुए किया गया था. इन 25 में वर्षों 10 आदिवासी मुख्यमंत्री बने. पर आदिवासी समुदायों के संपूर्ण सामाजिक , सांस्कृतिक, शैक्षणिक, धार्मिक, भाषाई और आर्थिक विकास अपेक्षित स्तर तक नहीं हुआ. राज्य के शिक्षा नीति में केजी से पीजी तक सभी शिक्षण संस्थानों में ओल चिकि लिपि से पढ़ाई शुरू करने और संताली भाषा को राज्य भाषा मान्यता न देना दुखद है. एक तरह से संताल हुल के नायकों के मातृभाषा को अपमानित करने जैसे है. जबकि भारत सरकार ने संताली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में वर्ष 2003 में भी शामिल कर लिया. संताल समुदाय की पहचान सुरक्षित रहे और नई पीढ़ी अपनी भाषा, लिपि और परंपराओं से जुड़े रहे, उसके लिए जरूरी है कि इनके भाषा और लिपि को राज्य सरकार मान्यता देकर प्रोत्साहित करें. जबकि पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल, उड़ीसा व असम में संताली भाषा और उसके लिपि को मान्यता मिली हुई है. यहां सभी सरकारी विद्यालय एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ाई चल रही है. इसी बर्ष ओल चिकि लिपि के आविष्कार के एक दशक पुरे होने और संताल हुल के 170 वर्षगांठ पर हुल नायकों के सम्मान में राज्य सरकार भोगनाडीह से संताली भाषा को प्रथम राज्य भाषा और ओल चिकि लिपि मान्यता की घोषणा करें. यही संताल हूल के नायकों की सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
श्री कालीदास मुर्मू संपादक आदिवासी परिचर्चा।
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