16 जून 1931 को जन्मे डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा एक ऐसे भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी थे, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी आदिवासियों, किसानों और वंचितों के हक की लड़ाई में समर्पित कर दी. उनकी जन्मतिथि पर हमें उनके योगदान और उनके प्रेरणादायी जीवन को याद करना चाहिए, जिन्होंने व्यवस्था के भीतर और बाहर रहकर समाज के सबसे कमजोर वर्गों के लिए संघर्ष किया।प्रशासनिक सेवा में एक नायाब योगदानडॉ. शर्मा ने अपने प्रशासनिक करियर की शुरुआत से ही आदिवासियों और वंचित समुदायों के संवैधानिक अधिकारों की वकालत की. 1968 में बस्तर के कलेक्टर के रूप में उन्होंने अपनी निष्पक्षता और संवेदनशीलता से ख्याति अर्जित की. उनकी कार्यशैली ने साबित किया कि एक प्रशासनिक अधिकारी भी जनता के हितों को सर्वोपरि रख सकता है. लेकिन 1981 में, जब आदिवासियों और दलितों के लिए सरकारी नीतियों को लेकर उनके और सरकार के बीच मतभेद गहराए. उन्होंने प्रशासनिक सेवा को त्याग दिया. यह फैसला उनके साहस और सिद्धांतों के प्रति निष्ठा को दर्शाता है. प्रशासनिक सेवा छोड़ने के बाद डॉ. शर्मा का समर्पण आदिवासी समुदाय को लेकर और बढ़ गया. वे भारत सरकार द्वारा नॉर्थ-ईस्ट यूनिवर्सिटी,शिलांग के कुलपति नियुक्त किए गए, जहां उन्होंने आदिवासी समुदायों के लिए कार्य करना जारी रखा. 1986 से 1991 तक उन्होंने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के अंतिम आयुक्त के रूप में कार्य किया. इस दौरान उनकी तैयार की गई रिपोर्ट ने आदिवासियों की दयनीय स्थिति को उजागर किया और उनके लिए न्याय सुनिश्चित करने वाले नीतिगत बदलावों की नींव रखी. यह रिपोर्ट आज भी आदिवासी अधिकारों के लिए एक ऐतिहासिक दस्तावेज मानी जाती है. 1991 में डॉ. शर्मा ने 'भारत जन आंदोलन' और 'किसानी प्रतिष्ठा मंच' की स्थापना की, जिसके माध्यम से उन्होंने आदिवासियों और किसानों के जल, जंगल और जमीन के अधिकारों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन चलाया। उनकी यह लड़ाई प्राकृतिक संसाधनों की लूट और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली विकास नीतियों के खिलाफ थी. 2012 में छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में माओवादियों द्वारा बंधक बनाए गए कलेक्टर को छुड़ाने में उन्होंने प्रोफेसर हरगोपाल के साथ मिलकर वार्ताकार की भूमिका निभाई, जो उनके संकटकालीन नेतृत्व और मानवीय दृष्टिकोण को दर्शाता है. डॉ. शर्मा का जीवन छोटी-छोटी घटनाओं में भी उनकी मानवता को दर्शाता है. 1972 में पिपरिया के आर.एन.ए. स्कूल में सामूहिक नकल प्रकरण के दौरान तत्कालीन डीपीआई के रूप में उन्होंने छात्रों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का विरोध किया. उन्होंने माना कि ऐसी कार्रवाई से छात्रों का भविष्य खतरे में पड़ सकता है. यह घटना उनकी संवेदनशीलता और जनता के प्रति उनके दायित्वबोध को उजागर करती है. 6 दिसंबर 2015 को डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा का निधन हो गया, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है. वे उन गिने-चुने लोगों में से थे, जिन्होंने सत्ता और सुविधाओं को ठुकराकर समाज के हाशिए पर खड़े लोगों के लिए जिंदगी समर्पित की. उनके गाँधीवादी दृष्टिकोण, आदिवासियों और किसानों के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता और व्यवस्था के खिलाफ उनकी निर्भीकता उन्हें एक सच्चे जननायक बनाती है.
डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा का जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व वही है, जो कमजोरों की आवाज बन सके. उनकी जन्मदिवस पर हमें उनके विचारों और संघर्षों को याद करते हुए यह संकल्प लेना चाहिए कि हम भी अपने स्तर पर समाज के वंचित वर्गों के लिए योगदान देंगे। जनआंदोलनों में उनकी कमी हमेशा महसूस होगी, लेकिन उनकी प्रेरणा हमें हमेशा मार्गदर्शन देती रहेगी.
संकलन : कालीदास मुर्मू संपादक आदिवासी परिचर्चा
0 Comments