एक ओर जहां महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता आंदोलन चरम पर थी, वहीं अंग्रेजों का दमनकारी नीतियों कड़ाई से लागू किए जा रहे थे. हजारों युवा-युवती इस पवित्र माटी को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी के लिए प्रणों की आहुति देने को तैयार हो खड़े थे. ठीक इस वक्त झारखंड की माटी के एक छोटे से गांव नेमरा में शिवलाल सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को होता हैं. यह गांव उस वक्त ब्रिटिश शासन के अधीन था. जो वर्तमान में झारखंड के रामगढ़ जिला अन्तर्गत आता है.
पिता सोभरन मांझी मुलत: किसान थे, पर वे शिक्षक के पेशे से जुड़े थे. उस समय शायद ही किसी को अंदाजा नहीं रहा होगा कि यह बच्चा आगे चलकर भारत के सबसे ताकतवर आदिवासी नेता के रूप में उभरेगा. लेकिन शिवलाल सोरेन का राह आसान नहीं था. संघर्ष से भरा रहा. 13 साल की उम्र में ही उन्होंने वह दर्द देखा जो किसी बच्चे की मासूमियत छीन लेता है. सूदखोरों ने उनके पिता की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी. शिवलाल ने अपनी मां को न्याय के लिए दर-दर भटकते देखा. यह सब देख कर, तभी उनके मन में एक चिंगारी पैदा हुई व्यवस्था को बदलने की, अन्याय के खिलाफ उठ खड़ा होने की जज्बा. जिस व्यवस्था ने उनके पिता की जान ली थी, अब शिवलाल उसी व्यवस्था से टकराने की तैयारी में थे. उनके भीतर क्रोध था, सवाल थे, लेकिन साथ ही वह भावना भी थी जिसे कोई व्यवस्था नहीं तोड़ सकती, बदलाव का जुनून.
गांव से शुरूआत की आंदोलन का प्रारुप: युवा शिवलाल सोरेन ने महाजनों प्रथा का से शुरुआत की. वह लोगों को इकट्ठा करते, उन्हें समझाते, महाजनों के खिलाफ जागरूक करते. 1967 में जब सिंदरी से मार्क्सवादी नेता ए.के. रॉय विधायक बने, तो उन्हें ऐसे ही किसी आदिवासी युवा की तलाश थी जो ईमानदार हो, मेहनती हो, और आदिवासी चेतना से जुड़ा हो. उनकी यह तलाश शिवलाल उर्फ शिबू सोरेन पर आकर खत्म हुई. उनके एक भेंट से पूर्ण विश्वास हो गया कि यह युवा भविष्य में आदिवासियत के आवाज़ को बुलंद कर सकता है.
मार्क्सवादी चिंतक ए .के. रॉय की संरक्षण में वैचारिक तौर पर मजबूत हुए शिबू सोरेन :
ए.के. रॉय और बिनोद बिहारी महतो जैसे विचारकों के साथ काम करते हुए शिबू सोरेन ने न केवल राजनीति को समझा, बल्कि उसे ज़मीनी संघर्षों से जोड़ा. उन्होंने 'सोनत संथाल समाज' की स्थापना की एक ऐसा संगठन जो आदिवासी समाज में चेतना और एकजुटता का काम कर सके. ये वो दौर था जब आदिवासी समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य और अधिकार जैसे मुद्दे गायब थे. शिबू सोरेन ने इन्हीं सवालों को लेकर आदिवासियों के बीच आंदोलन खड़ा किया.
महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन छेड़ा:
1969-70 के दौर में टुंडी जैसे इलाकों में उन्होंने महाजनों के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन शुरू किया. वे गांव-गांव जाते, लोगों को एकजुट करते और सूदखोरों की खुलेआम खिलाफत करते. शिबू सोरेन न सिर्फ आंदोलन करते, बल्कि आदिवासियों को शराब छोड़ने और आत्मनिर्भर बनने के लिए भी प्रेरित करते थे. यह नेतृत्व सिर्फ नारों तक सीमित नहीं था यह नेतृत्व जीवन के हर क्षेत्र को छूता था.
शिबू सोरेन ने झारखंड में एक अलग राजनीतिक प्रयोग किया:
1973 में जब झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की स्थापना हुई, तब वह आंदोलन एक पार्टी में बदल चुका था. यह पार्टी ए.के. रॉय की विचारधारा और शिबू सोरेन की मेहनत की संतान थी. लेकिन 1973 में ए.के. रॉय को मीसा कानून के तहत जेल भेज दिया गया. उस कठिन समय में भी शिबू सोरेन डटे रहे. 1977 में उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन हार गए. हार ने उन्हें कमजोर नहीं किया बल्कि और मजबूत बना दिया.
राजनीति के लिए संताल परगना में प्रवेश: मार्क्सवादी चिंतक ए.के. राय सलाह पर वे राजनीति के लिए संताल परगना की ओर बढ़ गए और वहां से अपने आंदोलन को नए रूप में गढ़ना शुरू किया. दुमका संसदीय क्षेत्रों से वे 1980 में सासंद बनें. उनका उभार ऐसा हुआ कि वह एक के बाद एक लोकसभा चुनाव जीतते चले गए 1980, 1989, 1991, 1996, 2000, 2004, 2009, 2014 तक लगातार सासंद चुनें गए. यह सिलसिला सिर्फ चुनावी जीत का नहीं था, यह एक आंदोलन की स्वीकार्यता का प्रमाण था.
शिबू सोरेन ने सफलता के साथ-साथ असफलता को भी देखा:
लेकिन उनका जीवन सिर्फ संघर्ष और सफलता की कहानी नहीं रहा. विवाद भी उनके साथ चलते रहे. शशिनाथ झा हत्याकांड हो या चिरुडीह नरसंहार शिबू सोरेन पर आरोप लगे. उन्हें जेल भी जाना पड़ा. लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी. हर बार वे न्यायालय से बरी हुए और हर बार पहले से ज्यादा मजबूत होकर लौटे. उन्हें 'गुरुजी' कहे जाने का सम्मान यूं ही नहीं मिला था यह सम्मान उस संघर्ष, उस तपस्या और उस सादगी का फल था जिसे उन्होंने पूरी जिंदगी जिया.
सपने को साकार होते देखा:
शिबू सोरेन उन विरले नेताओं में से थे जिन्होंने अपने जीवन में उस सपने को साकार होते देखा, जिसकी लड़ाई उन्होंने शुरू की थी. झारखंड का अलग राज्य. और सिर्फ देखा ही नहीं, बल्कि राज्य बनने के बाद उसे नेतृत्व भी दिया. वे झारखंड के मुख्यमंत्री बने, उनकी पार्टी दो बार सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर. यह किसी व्यक्ति की नहीं, एक आंदोलन की जीत थी.
यूपीए के मनमोहन सिंह सरकार में केन्द्रीय कोयला मंत्री बने:
2004 के लोकसभा चुनाव में जेएमएम के 5 सांसद चुनाव जीतकर दिल्ली पहुंचे थे. और उन्हें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार बतौर केंद्रीय कोयला मंत्री बनाए गए. परंतु कुछ ही दिनों के बाद शशिनाथ झा हत्याकांड में दिल्ली की एक अदालत ने शिबू सोरेन को दोषी करार दिया. जिसके बाद शिबू सोरेन मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. बाद में उन्हें आत्मसर्मपण करना पड़ा. हालांकि बाद के दिनों में उन्हें अदालत से राहत मिल गय़ी और वो जेल से बाहर आ गए.
विधायक नहीं बन पाने के कारण सीएम पद छोड़ना पड़ा:
राज्य में मधु कोड़ा की सरकार के हटने के बाद शिबू सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उस समय वह विधायक नहीं थे. 6 महीने के अंदर उन्हें विधायक बनना था. तमाड़ विधानसभा में उपचुनाव होने थे. शिबू सोरेन वहां से चुनाव में उतरे लेकिन चुनाव हार गए. शिबू सोरेन को निर्दलीय उम्मीदवार राजा पीटर ने चुनाव में हरा दिया था. हार के बाद शिबू सोरेन को सीएम पद छोड़ना पड़ा. बाद में फिर बीजेपी के सहयोग से एक बार शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने. लेकिन उस समय उन्होंने संसद में कांग्रेस के समर्थन में वोट दे दिया. जिससे नाराज होकर बीजेपी ने उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया. एक बार फिर शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा.
दिसोम गुरु शिबू सोरेन एक ऐसे नेता थे,जो लड़ा भी, गिरा भी लेकिन अंत में जीतकर चला गया. उनका जाना एक युग का अंत है, लेकिन उनकी राह आने वाली पीढ़ियों के लिए रोशनी का रास्ता बन चुकी है आज़ के क्रांतिकारियों को उनसे सीखना चाहिए.
संकलन: कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा।
0 Comments