इस आलेख में हम देश के तीन क्षेत्रों की परिस्थितिकी, जलवायु संकट और वर्तमान संरक्षण प्रयासों के बारे चर्चा करेंगे जो जैव विविधता, पर्यावरण एवं सांस्कृतिक को संतुलित बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है.
हंसदेव जंगल (छत्तीसगढ़), सारंडा जंगल (झारखंड) और अरावली पहाड़ियों (राजस्थान‑हरियाणा‑दिल्ली) – तीनों ही भारत के प्रमुख पारिस्थितिक तंत्र हैं, परन्तु इनके पर्यावरणीय चुनौतियाँ, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और संरक्षण की दिशा में उठाए गए कदम अलग‑अलग हैं.
हंसदेव जंगल, जिसे अक्सर “मध्य भारत का फेफड़ा” कहा जाता है, लगभग 640 प्रकार के फूलों, 92 पक्षी प्रजातियों और हाथी, स्लोथ बियर, तेंदुआ जैसे दुर्लभ जीवों का घर है. यह वन क्षेत्र न केवल जैव विविधता का भंडार है, बल्कि हसदेव नदी के जलस्रोत को भी पोषित करता है, जो आस‑पास के लाखों लोगों की जल सुरक्षा का आधार है. हालाँकि, कोयला खनन की प्रस्तावित परियोजनाएँ इस संतुलन को बिगाड़ने की धमकी दे रही हैं. कोयला खनन के कारण वनों की कटाई, जल स्तर में गिरावट और माइक्रो‑क्लाइमेट में परिवर्तन की आशंका है, जिससे स्थानीय जलवायु में असंतुलन पैदा हो सकता है. हंसदेव के संरक्षण के लिए ग्राम सभा की अधिकारिता को मजबूत करने, पारदर्शी पर्यावरणीय अनुमोदन प्रक्रिया अपनाने और कंपनियों को पर्यावरणीय दायित्वों के लिए जवाबदेह बनाने की मांगें तेज़ी से उठ रही हैं। इस प्रकार, हंसदेव जंगल विकास और पर्यावरण के बीच एक स्पष्ट टकराव का मंच बन गया है, यहाँ स्थानीय जनजातियों की सांस्कृतिक पहचान भी दांव पर लगी है.
अरावली पहाड़ियाँ, जो उत्तर‑पश्चिम भारत की “हरित दीवार” के रूप में कार्य करती हैं, थार रेगिस्तान की रेत और गर्म हवाओं को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. अरावली की जलधाराएँ, जैसे बनास, लूणी और साहिबी, कई बड़े शहरों को जल आपूर्ति करती हैं. परन्तु अवैध खनन, भूमि अतिक्रमण और वनाच्छादन की कमी ने इस पर्वत श्रृंखला को गंभीर संकट में डाल दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने 2025 में स्पष्ट किया कि केवल 100 मीटर से ऊँची पहाड़ियों को ही अरावली माना जाएगा, जिससे लगभग 90 प्रतिशत पहाड़ियाँ संरक्षण के दायरे से बाहर हो गईं. इस निर्णय के बाद खनन की नई लीजों की संभावना बढ़ गई, जिससे जल‑स्रोतों की रिचार्ज क्षमता घटने और धूल‑भरी आंधियों की आवृत्ति बढ़ने की आशंका है. “अरावली बचाओ” अभियान और “हरित दीवार” परियोजना जैसी पहलें इस क्षेत्र में पुनर्वनीकरण और जल संरक्षण को बढ़ावा दे रही हैं, परन्तु अभी भी बड़े पैमाने पर सामुदायिक भागीदारी की कमी देखी जा रही है.
इन तीन क्षेत्रों की तुलना करने पर कुछ प्रमुख बिंदु उभरते हैं. सबसे पहले, जैव विविधता के संदर्भ में हंसदेव और सारंडा दोनों ही उच्च स्तर की प्रजाति समृद्धि रखते हैं, जबकि अरावली में मुख्य रूप से वनाच्छादन और जल‑धाराओं की भूमिका अधिक है. दूसरा, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सभी क्षेत्रों में समान रूप से महसूस किए जा रहे हैं, वर्षा पैटर्न में अनियमितता, तापमान में वृद्धि और जल‑संकट। तीसरा, संरक्षण के साधन अलग‑अलग हैं: हंसदेव में ग्राम सभा की शक्ति को मजबूत करने की मांग है, सारंडा में सामुदायिक वन प्रबंधन और पुनर्वनीकरण पर जोर है, जबकि अरावली में न्यायिक हस्तक्षेप और राष्ट्रीय स्तर की “हरित दीवार” पहल प्रमुख हैं. अंत में, इन सभी क्षेत्रों में सफलता की कुंजी स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी, पारदर्शी नीति‑निर्धारण और पर्यावरणीय शिक्षा में निहित है.
संक्षेप में, हंसदेव जंगल, सारंडा जंगल और अरावली पहाड़ियाँ भारत के पर्यावरणीय संतुलन के तीन अलग‑अलग लेकिन आपसी रूप से जुड़े हुए स्तम्भ हैं. इनके संरक्षण के लिए विकास की आवश्यकता और पारिस्थितिक सुरक्षा के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है. यदि हम इन क्षेत्रों की विशिष्ट चुनौतियों को समझकर उचित उपाय अपनाएँ, तो जलवायु परिवर्तन के खिलाफ भारत की लड़ाई में एक ठोस कदम आगे बढ़ाया जा सकता है.
संकलन : कालीदास मुर्मू संपादक आदिवासी परिचर्चा।


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