कुड़मी/ कुरमी आदिवासी क्यों नहीं मानें जा सकते हैं, एक तथ्यपरक विश्लेषण


भारत में जातीय और सामाजिक वर्गीकरण एक गहन ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है. विशेषकर आदिवासी (Scheduled Tribes) की पहचान केवल किसी जाति या उपनाम पर नहीं, बल्कि उनके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक और सामाजिक लक्षणों पर आधारित होती है. इसी संदर्भ में कुरमी/कुड़मी समाज को आदिवासी सूची में शामिल करने की मांग समय-समय पर उठती रही है, किंतु इसके पीछे के तर्कों को समझना आवश्यक है. 

1. ऐतिहासिक प्रमाण: 

भारतीय जनगणना और ब्रिटिश कालीन रिपोर्टों में कुरमी/कुड़मी समुदाय को प्राचीन काल से ही कृषक (किसान) जाति के रूप में वर्णित किया गया है.

1931 की जनगणना और विभिन्न जिला गज़ेटियरों में इन्हें कृषक जातियों में रखा गया है.

आदिवासी समुदायों की तरह इनका कोई विशिष्ट जनजातीय भाषा या बोली दर्ज नहीं है.

2. सामाजिक संरचना: 

आदिवासी समाज की एक बड़ी पहचान उनकी पारंपरिक गोत्र प्रणाली, अलग रीति-रिवाज, देवी-देवता और वनाधारित अर्थव्यवस्था रही है.

कुरमी/कुड़मी समाज का मुख्य व्यवसाय पारंपरिक रूप से खेती रहा है और ये हिंदू समाज की वर्ण व्यवस्था और संस्कारों से जुड़ा रहा है.
इनके विवाह, उत्सव और धार्मिक अनुष्ठान हिंदू कृषक जातियों से मेल खाते हैं, न कि विशुद्ध जनजातीय परंपराओं से।


3. संवैधानिक परिभाषा : 

भारत सरकार ( लोकुर आयोग) द्वारा आदिवासी सूची में शामिल करने के लिए पाँच प्रमुख मापदंड माने गए हैं:

1. आदिम लक्षण (Primitive traits)


2. अलग संस्कृति


3. भौगोलिक अलगाव


4. सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन


5. समाज में अन्य जातियों से न्यूनतम संपर्क

कुरमी/कुड़मी समुदाय इन मानकों में से अधिकांश पर खरे नहीं उतरते। इनके गाँव, खेती-किसानी और व्यापारिक गतिविधियाँ अन्य ग्रामीण समाज से घुली-मिली रही हैं.

4. वर्तमान स्थिति : 

कुरमी/कुड़मी समाज पहले से ही अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के अंतर्गत आरक्षण का लाभ ले रहा है.

अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने की मांग अधिकतर राजनीतिक और आर्थिक लाभ से प्रेरित मानी जाती है.

संविधान में अनुसूचित जनजाति सूची में संशोधन केवल ठोस एंथ्रोपोलॉजिकल और ऐतिहासिक साक्ष्य पर ही किया जा सकता है। 

5. संतुलित निष्कर्ष : 

कुरमी/कुड़मी समाज भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है.उन्हें आदिवासी घोषित करना न केवल संवैधानिक मापदंडों के विरुद्ध होगा, बल्कि वास्तविक आदिवासी समुदायों के अधिकारों को भी प्रभावित कर सकता है.

समाज की प्रगति शिक्षा, रोज़गार और आधुनिक कृषि सुधारों से संभव है, न कि केवल आरक्षण की नई श्रेणी पाने से।

समापन विचार : 

जातिगत पहचान केवल लाभ प्राप्त करने का माध्यम नहीं हो सकती।
कुरमी/कुड़मी समाज की असल ताकत उनकी कृषि-कुशलता, मेहनत और संगठन है.अपने इतिहास और परंपराओं पर गर्व करना और शिक्षा-आधारित प्रगति को अपनाना ही दीर्घकालिक समाधान है. 

संकलन: श्री कालीदास मुर्मू,  संपादक आदिवासी परिचर्चा।

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