21वीं सदी को अक्सर “वैश्वीकरण का युग” कहा जाता है. इंटरनेट, तेज़ संचार, अंतरराष्ट्रीय व्यापार, नई तकनीक और पूँजी ने दुनिया को पहले से कहीं अधिक मजबूती प्रदान किया है. यह जुड़ाव विकास, अवसर और ज्ञान का प्रतीक है, लेकिन इसके साथ ही दुनिया भर के आदिवासी समुदायों के लिए अपनी अस्मिता (Identity) और अस्तित्व (Existence) को बनाए रखना कठिन चुनौती बन गया है.
भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक देश में लगभग 10 करोड़ से अधिक लोग अलग-अलग आदिवासी समुदायों में रहते हैं. उनकी भाषाएँ, परंपराएँ, जीवनशैली और प्रकृति-केंद्रित दृष्टिकोण न केवल हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, बल्कि सतत विकास के लिए भी मार्गदर्शक हैं. फिर भी, भूमंडलीकरण की तेज़ लहर इन समुदायों के लिए अवसरों के साथ-साथ गहरे संकट लेकर आई है.
1. वैश्वीकरण का स्वरूप और आदिवासी समाज पर प्रभाव:
वैश्वीकरण केवल आर्थिक लेन-देन का नाम नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय क्षेत्रों तक फैला हुआ है.
आर्थिक दबाव: खुली अर्थव्यवस्था ने खनन, औद्योगिकीकरण, बड़े बांध और अवसंरचना परियोजनाओं को गति दी है. आदिवासी क्षेत्रों में मौजूद खनिज, जंगल और जल स्रोत वैश्विक पूँजी के लिए आकर्षण का केंद्र बने हैं. इससे ज़मीन-अधिग्रहण, विस्थापन और पारंपरिक आजीविका के नुकसान जैसी समस्याएँ बढ़ी हैं.
सांस्कृतिक समरूपीकरण: मीडिया, बाज़ार और शहरी जीवनशैली उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देते हैं. इससे आदिवासी भाषाएँ, लोककथाएँ, गीत-संगीत और पारंपरिक त्योहार धीरे-धीरे हाशिए पर जा रहे हैं.
पर्यावरणीय क्षरण: विकास परियोजनाओं से जंगल कट रहे हैं, नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं और जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ रहा है. आदिवासी समुदाय, जो प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहते हैं, इस संकट के सीधे शिकार बनते हैं.
2. अस्मिता को चुनौती देने वाले प्रमुख कारक:
भूमि और संसाधन अधिकारों का हनन: खनन परियोजनाओं, औद्योगिक कॉरिडोर और बड़े बांधों के कारण लाखों आदिवासी परिवार अपनी ज़मीन और जंगलों से विस्थापित हुए हैं. ज़मीन केवल आजीविका का साधन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान का केंद्र भी है.
भाषा का क्षय : यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार भारत की कई आदिवासी भाषाएँ विलुप्ति की कगार पर हैं. भाषा का लोप केवल शब्दों का नुकसान नहीं, बल्कि पूरी सांस्कृतिक स्मृति और ज्ञान प्रणाली का विनाश है.
राजनीतिक हाशियाकरण : यद्यपि संविधान में अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण और विशेष अधिकार प्राप्त हैं, परंतु नीति निर्माण में उनकी वास्तविक भागीदारी सीमित है. ग्रामसभा और पंचायत जैसी संस्थाओं को कई बार नज़र अंदाज़ किया जाता है.
शिक्षा और स्वास्थ्य की दोहरी चुनौती: आधुनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच आवश्यक है, लेकिन शिक्षा का पाठ्यक्रम अक्सर स्थानीय ज्ञान को नकार देता है. इससे नई पीढ़ी अपनी जड़ों से कटती है और पारंपरिक स्वास्थ्य पद्धतियाँ भी उपेक्षित होती हैं.
3. भारतीय संदर्भ के उदाहरण : झारखंड और छत्तीसगढ़: यहाँ कोयला, लौह अयस्क और बाक्साइट की खदानों ने बड़े पैमाने पर विस्थापन किया. कई गाँवों को पूरी तरह खाली करना पड़ा.ओडिशा का नीयामगिरी पर्वत: डोंगरिया कोंध जनजाति ने अपने पवित्र पर्वत पर बॉक्साइट खनन का विरोध कर एक मिसाल कायम की. यह संघर्ष दिखाता है कि सामुदायिक एकजुटता से वैश्विक कंपनियों के दबाव का मुकाबला किया जा सकता है.पूर्वोत्तर भारत में बड़े बांधों और सड़क परियोजनाओं से पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ रहा है. पारंपरिक झूम खेती और वन संसाधनों पर निर्भरता कम हो रही है.अंडमान के जारवा और ओंगे: पर्यटन और बाहरी संपर्क से उनके पारंपरिक जीवन पर गहरा असर पड़ा है.
4. अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य: भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के आदिवासी समूह इसी तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.ऑस्ट्रेलिया के एबोरिजिनल्स, कनाडा के फर्स्ट नेशंस, अमेरिका के नेटिव अमेरिकन, और लैटिन अमेरिका के मायन/केचुआ समुदायों ने औद्योगिकीकरण, जलवायु परिवर्तन और संसाधन दोहन से अपनी भूमि और संस्कृति खोई है. संयुक्त राष्ट्र ने 2007 में UNDRIP (United Nations Declaration on the Rights of Indigenous Peoples) को स्वीकार कर आदिवासी अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय मान्यता दी, लेकिन जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन अब भी चुनौती है.
5. अस्तित्व बचाने के रास्ते: -
1. कानूनी सुरक्षा और उसका प्रभावी क्रियान्वयन
भारत में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्र) अधिनियम (PESA) और वन अधिकार अधिनियम (FRA) आदिवासी स्वशासन और भूमि अधिकार की गारंटी देते हैं। ज़रूरी है कि ग्रामसभा को वास्तविक शक्ति मिले और परियोजनाओं में “पूर्व, स्वतंत्र और सूचित सहमति” (Free, Prior and Informed Consent – FPIC) अनिवार्य हो.
2. भाषा और संस्कृति का संरक्षण : आदिवासी भाषाओं को शिक्षा और डिजिटल मीडिया में शामिल करना चाहिए. लोककला, संगीत, पारंपरिक खेलों और त्योहारों को सरकारी और सामाजिक स्तर पर प्रोत्साहन दिया जाए.
3. सतत विकास मॉडल : सामुदायिक वन प्रबंधन, पारंपरिक कृषि पद्धतियों और स्थानीय उद्यमों को बढ़ावा देकर आर्थिक विकास और पर्यावरणीय संतुलन दोनों को साधा जा सकता है.
4. शिक्षा में संतुलन: आधुनिक तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ स्थानीय इतिहास, पारंपरिक ज्ञान और पर्यावरणीय चेतना को पाठ्यक्रम में शामिल करना आवश्यक है.
5. सहभागिता आधारित नीति निर्माण : नीतियों में आदिवासी प्रतिनिधियों की सीधी भागीदारी सुनिश्चित हो. निर्णय लेने से पहले ग्रामसभा की सहमति को बाध्यकारी बनाया जाए.
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भौतिक वैश्वीकरण ने हमारे समाजों को नई गति, तकनीक और अवसर दिए हैं, लेकिन उसकी तेज़ रफ़्तार के बीच आज आदिवासी समुदायों की अस्मिता (पहचान) और अस्तित्व को गहरा संकट है. भारत सहित विश्वभर के आदिवासी समूहों के लिए पारंपरिक ज़मीनों का विखंडन, प्राकृतिक संसाधनों की हानि, भाषा का गायब होना, और सांस्कृतिक मूल्यों का हाशिए पर चले जाना चिंता का विषय है.
भारत में वन अधिकार अधिनियम और PESA जैसे कानूनी उपकरण मौजूद हैं, लेकिन ये तभी असरदार हो पाएंगे जब ग्राम सभा को निर्णय लेने की वास्तविक शक्ति मिले और परियोजनाओं में आदिवासी समुदायों की पूर्व, स्वतंत्र और सूचित सहमति (Free, Prior and Informed Consent) सुनिश्चित हो. साथ ही शिक्षा, भाषा, लोककला और परंपराओं को आधुनिक विकास के साथ संतुलित रूप से जोड़ने की ज़रूरत है, ताकि केवल बाहरी विकास ही नहीं बल्कि आंतरिक संस्कृति का पोषण हो सके.
संकलन: श्री कालीदास मुर्मू संपादक आदिवासी परिचर्चा ।
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