भारत को अक्सर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है. यहाँ हर नागरिक को समान अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपनी संस्कृति को जीने का अवसर देने का वादा किया गया है. लेकिन जब हम लोकतंत्र की इस चमक को गहराई से देखते हैं, तो एक सवाल अनदेखा नहीं किया जा सकता क्या लोकतंत्र ने वास्तव में आदिवासियों को उनकी असली पहचान और अधिकार दिलाए हैं ?
आदिवासी और लोकतंत्र का संबंध:
भारत के आदिवासी समाज संताल, मुंडा, गोंड, भील, हो, खड़िया, कोल जैसे अनगिनत समुदाय इस भूमि के सबसे प्राचीन निवासी हैं. प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव, सामूहिक जीवन पद्धति और अपनी विशिष्ट भाषा-संस्कृति के कारण वे भारतीय सभ्यता की जड़ों को मजबूत करते हैं.
संविधान ने उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में विशेष अधिकार, भूमि पर हक और परंपराओं की सुरक्षा देने का प्रावधान किया है. पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम—PESA, वन अधिकार कानून (FRA), पाँचवीं और छठी अनुसूचियाँ इसी सोच से बनाई गईं.लेकिन कागजी अधिकारों और ज़मीनी हक़ीक़त में बड़ा अंतर है.
लोकतंत्र के वादे बनाम ज़मीनी सच्चाई :
- भूमि और संसाधनों पर संकट – खनन परियोजनाएँ, डैम, उद्योग और जंगलों की कटाई ने आदिवासी भूमि को लगातार छीना.
- सांस्कृतिक हाशियाकरण – आधुनिक विकास की आंधी में उनकी भाषा, लोककला और पारंपरिक ज्ञान को अक्सर पिछड़ा समझा जाता है.
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व – आरक्षित सीटों के बावजूद अक्सर स्थानीय नेता बड़े दलों के एजेंडे के कैदी बन जाते हैं.
लोकतंत्र का मूल मंत्र “जन-जन की भागीदारी” है. पर जब आदिवासी अपनी ज़मीन, जंगल और नदियों को बचाने की आवाज़ उठाते हैं, तो उन्हें कई बार आंदोलनकारी, यहाँ तक कि “बाधक” कह दिया जाता है. यह लोकतंत्र की आत्मा पर सवाल खड़ा करता है.
आशा की किरण :
फिर भी कहानी सिर्फ संघर्ष की नहीं है. कई आदिवासी इलाकों में ग्राम सभा और पंचायत ने अपनी ताकत दिखाई है. नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर ओडिशा के नियामगिरी पहाड़ की रक्षा तक, आदिवासी समुदायों ने लोकतांत्रिक तरीके से अपने हक के लिए आवाज़ बुलंद की है.
युवा पीढ़ी शिक्षा, सोशल मीडिया और व्लॉग जैसे प्लेटफार्म का इस्तेमाल कर अपनी कहानियाँ दुनिया तक पहुँचा रही है. यह लोकतंत्र की सबसे बड़ी जीत है.
समाधान के उपाय व सुझाव:
- नीतियों का स्थानीयकरण – विकास योजनाएँ तभी सफल होंगी जब ग्राम सभाओं को वास्तविक शक्ति दी जाए.
- संस्कृति का सम्मान – आदिवासी भाषा, संगीत, लोककथा और ज्ञान को स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल करना ज़रूरी है.
- समान भागीदारी – चुनावों और नीतिगत निर्णयों में आदिवासी युवाओं की सक्रिय भागीदारी लोकतंत्र को मजबूत करेगी.
निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि भारत का लोकतंत्र तभी सच में पूर्ण होगा, जब उसकी जड़ें जंगलों, पहाड़ों और नदियों में बसे आदिवासी समाज के साथ समानता और सम्मान के साथ जुड़ेंगी.
आदिवासी सिर्फ भारत का अतीत नहीं, बल्कि उसका भविष्य भी हैं। उनकी पहचान और अधिकारों की रक्षा करना लोकतंत्र को बचाने जैसा है.
संकलन: कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा।
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