आदिवासी संस्कृति प्राचीन सभ्यता की विश्व धरोहर



आदिवासी अर्थात किसी एक स्थान पर युगों से वास करने वाली एक जाति जिसकी अपनी एक पारंपरिक व्यवस्था, लोक आस्था और जीवन जीने की एक विशेष कला है. ये विशिष्ट जीवन शैली उनकी अपनी मूल पहचान है जिसे बाकी दुनिया से अलग करती है. भारतीय समाज का एक हिस्सा शहरों एवं महानगरों में बसता है जहां सुसंपन्न के विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करता है वहीं आदिवासी समाज सुदूर गांव देहात में दिखता है. शहरी समाज चौकचौंध और भौतिक सुख सुविधा में जीवन बसर कर रहा है वहीं आदिवासी समाज आधुनिकता के भाग दौड़ से दूर अपनी पूरखैती जीवन शैली का निर्वहन करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर रही है. तथाकथित सभ्य समाज भले ही इसे पिछड़ा या अभावग्रस्त समाज कह दे लेकिन आदिवासियों के लिए अभाव कोई मायने नहीं रखता. जियो और जीने दो आदिवासी जीवन की मूल भावना है और यही इनकी जीवन दर्शन भी है.

प्रारंभिक काल से ही आदिवासी सुदूर गांवों, पहाड़ों, जंगलों के निकट निवास करती आ रही है. जिसके चलते उन्हें गंवार, जंगली, अरण्यवासी, पहाड़ी, अधर्मी और असभ्य जैसे शब्दों से संबोधन किया जाता रहा है. ज्ञात हो कि पूर्वजों से जंगल पहाड़ आदिवासियों का आश्रय स्थल के रूप में रहा है. आदिवासी समुदाय प्रकृति के सानिध्य में रह कर अपना जीवन चक्र व्यतीत करती आ रही है. पेड़ पौधों, नदी झरनों, पहाड़ टीलों से आदिवासियों का अटूट संबंध रहा है. प्रकृति का विशाल भंडार जंगल है जहां पर आदिवासियों को विभिन्न प्रकार के मौसमी फल फूल और कंदमूल प्रचुर मात्र में प्राप्त होता आया है इसीलिए जंगल पहाड़ उनके जीवन का मूल आधार है. इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि आदिवासी ही युगों से जंगल पहाड़ के सच्चे प्रहरी के रूप में खड़े दिखते हैं। वे जंगलों से उतने ही लेते हैं जितने उनको चाहिए होता है.

आदिवासियों की अपनी एक अलग दुनिया है. यहां का रहन सहन का अंदाज़ बाकी दुनिया से बिल्कुल भिन्न और अद्भुत है. आदिवासियों की अपनी भूभाग, अपनी सीमाएं, अपनी भाषा, अपनी शासन व्यवस्था है. इनकी अपनी एक समृद्ध संस्कृति है. इनमें सरलता, सहजता, सहभागिता और स्वतंत्र विचार के भाव कूट-कूट कर भरा हुआ है. भौतिक सुख के पीछे भागने वाले समाज जहां आज छिन्न भिन्न स्थिति में है वहीं आदिवासी समाज अपनी भी सामाजिक पहचान को जिंदा किए हुए हैं. युगों से इसने कई तरह के प्रकृति आपदाएं और दंश झेला है पर अपनी जीवटता के बल पर अभी भी इस धरा में अपनी उपस्थिति बरकरार रखी हुई है. बाहरी समाजों ने उनके सीधे सादापन का शुरू से ही फायदा उठाकर उसके साथ कई तरह से शोषण किए हैं और उन्हें हमेशा हाशिए पर ही रखा है जिसके चलते उन्हें हीनभावना का शिकार होना पड़ा है और मुख्यधारा के कभी हिस्सा नहीं बन पाए हैं.

कई मायनों में अगर देखा जाए तो आदिवासी संस्कृति अन्य दूसरे समाज की संस्कृति से श्रेष्ठ साबित हुए हैं। आदिवासी विरासत विश्व की अनमोल धरोहर है जिसे आधुनिक समाज को उनसे सीखने और सहेज कर रखने की अति आवश्यकता है. आज विश्व की लगभग चालीस करोड़ आदिवासी अपनी पहचान एवं अस्मिता को बनाए रखने के हर दिन संघर्ष कर रही है. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बाहरी समाज आदिवासी समाज और उसकी विरासत को धीरे-धीरे मिटाने में तुली हुई है. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर बाहरी समाज आदिवासी दुनिया पर दखलंदाजी करना छोड़ दे, आदिवासी युगों तक अपनी सभ्यता और संस्कृति को सुगमता पूर्वक आगे ले जाने में समर्थ है. बाहरी समाज की नज़र आदिवासी ज़मीन और उनकी गांव पर टिकी हुई है और उन्हें उस जगह से हटाने के लिए जी तोड़ कोशिश में लगा हुआ है. इतिहास गवाह है बहुत सी प्राचीन सभ्यताएं दुनिया से मिट चुकी है, आज वे सभ्यताएं सिर्फ किताबों के पन्ने पर ही मिलते हैं. क्या आदिवासी समाज भी पन्नों पर समेट कर रह जाएंगे? आज के इस परिदृश्य में आदिवासी समाज प्रकृति विपदा से नहीं आधुनिक मानव समाज से खतरा महसूस कर रही है.  हर दिन इनकी सभ्यता और संस्कृति को मिटाने की साजिश रची जा रही है. इन्हें अपनी ज़मीन से जबरन बेदखल किया जा रहा है. उनकी उपजाऊ ज़मीन पर कल कारखाने लगाए जा रहे हैं. पहाड़ों को ढहाया जा रहा और जंगलों को उजाड़ा जा रहा है. आखिर आदिवासी जाए तो कहा जाएं। सच है कि विकास जरूरी है, पर आदिवासियों को विनाश कर क्यों? आदिवासियों की जड़ जल जंगल ज़मीन से जुड़ी हुई है. इन्हीं जमीनों से आदिवासी  अपने जरूरत के सामान के अलावा कई तरह के अनाज उपजाते हैं जो दुनिया को भी इनसे मिलता है. स्वाभाविक है अगर आदिवासियों को ज़मीन से बेदखल किया जाएगा तो कला संस्कृति जो इनकी मूल पहचान है हमेशा के लिए मिट जाएगी. आदिवासी मानव सभ्यता के विकास के एक अहम हिस्से हैं। यह कैसा विरोधाभास है कि देश की सरकार आधुनिकता के पोषक, मानव सभ्यता के निर्माताओं को जड़ से मिटाने के लिए तुली हुई है. गौर करने वाली बात यह है कि आदिवासी रहेगी तो धरती बचेगी, जिस दिन आदिवासी समूल नष्ट हो जाएगी धरती स्वत ही मिट जाएगी.

आदिवासी विरासत को बचाए रखने के लिए देश की सरकार के नीति नियंताओं को फिर से गहन विचार विमर्श करने की शक्त जरूरत है ताकि आदिवासी विरासत जमींदोज होने से बचाया जा सके।आदिवासियों की ज़मीन और उनके अधिकार पर हमला न हो ताकि उनकी पहचान और अस्मिता युगों तक अक्षुण्ण रहे। जिस तरह विश्व के अनेक पुरातात्विक अवशेषों, महलों, दीवारों और प्रकृति धरोहरों को विश्व विरासत मान कर उनका रख रखाव एवं सहेजा जाता है वैसी ही आदिवासी विरासत को सहेज कर रखने की बड़ी आवश्यकता है।

  श्री महेंद्र बेसरा ‘बेपारी’ साहेबगंज। 

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