जयंती विशेष: झारखंड के सांस्कृतिक एवं बौद्धिक पुरोधा थे डॉ रामदयाल मुंडा

 


झारखंड आंदोलन के अग्रणी नेता, आदिवासी संस्कृतिक व  आदिवासी बौद्धिक दर्शन को पुनर्स्थापित करने वाले प्रणेता रहे पदम् श्री डॉ रामदयाल मुंडा झारखंड ही नहीं, देश के लिए महान व्यक्तित्व के धनी थे. उनके द्वारा झारखंड के लिए बनाए गए प्रस्ताव आज कितना फलीभूत हो रही है समझने की आवश्यकता है. रामदयाल मुंडा का जन्म का जन्म रांची जिला के देवड़ी नामक गांव में 23 अगस्त 1939 ई॰ को हुईं थीं.  प्रारंभिक शिक्षा गांव के विद्यालय में पूरी करने के पश्चात उच्च शिक्षा के लिए रांची विश्वविद्यालय में दाखिला लिए उन्होंने मानव शास्त्र विज्ञान में एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर शोध के लिए विदेश चले गए. विदेश में शोध एवं अध्ययन कार्य पूर्ण होने के बाद में अपने मातृभूमि झारखंड आ गए. और झारखंड आंदोलन में बौद्धिक पुरोधा के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका में रहे.सन  2021 में उनकी 10 वीं पुण्यतिथि मनाई जा रही है। झारखंड के राजनीतिक आंदोलन को संस्कृतिक संजीविनी प्रदान करने में सतत उद्यमशीलत रहते हुए डॉ रामदयाल मुंडा समर्पण भाव से झारखंड हित में शामिल हो गए थे. डॉ रामदयाल मुंडा को 1986 ईस्वी में रांची विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति नियुक्त किया गया. झारखंड के बौद्धिक और सांस्कृतिक सिपाही को यह मान्यता उनके उद्यम, साहस और झारखंड के प्रति प्रेम को प्रोत्साहित करने का छोटा सा उपक्रम था. तथा 28 जनवरी 1987 ईस्वी को उन्हें कुलपति बनाया गया. बात उन दिनों की है जब झारखंड मुक्ति मोर्चा अध्यक्ष निर्मल महतो की शहादत के बाद झारखंड आंदोलन काफी उफान पर था. और केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह कार्तिक उरांव के जयंती समारोह में शामिल होने के लिए 3 नवंबर 1987 को रांची आए थे. जब गृह मंत्री ने डॉ मुंडा को राजभवन में बुलाकर झारखंड आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जानने का प्रयास किया था और उन्हें झारखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने का सुझाव दिए थे. डॉ मुंडा ने 20 मार्च 1988 को दिल्ली जाकर गृहमंत्री को यह रिपोर्ट सौंपी. देश-विदेश की कई संस्थाओं से जुड़े रहने के अलावा डॉ मुंडा इंडियन कनफेडरेशन ऑफ इंडीजीनस एंड ट्रैवल पीपुल नमक संस्था में कोई वर्षों तक अध्यक्ष रहे. डॉ मुंडा भारत सरकार द्वारा गठित कॉमेडियन झारखंड मीटर के सदस्य रहे तथा भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालय में गठित कमेटी के सदस्य तथा राज्यसभा सदस्य के रूप में मनोनीत किए गए थे. आज उनके पुण्यतिथि पर उनके द्वारा तैयार किए गए को सांस्कृतिक विरासतों को मूल्यांकन एवं अनुसरण करने की जरूरत है तभी उन्हें हम सच्ची श्रद्धांजलि देख सकते हैं.

कालीदास मुर्मू, संपादक, आदिवासी परिचर्चा।

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