समाजिक संरचना एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से कुरमी-महतो आदिवासी नहीं।


ब्रिटिश काल अर्थात देश की स्वतंत्रता के पूर्व  से ही झारखण्ड के मूल आदिवासियों को दूसरे समाज के लोग तिरस्कार भरी नजरों से देखते थे. उराँव , मुण्डा , खड़िया , हो , संताल , भूमिज , बिरजिया , नगेसिया , कोरबा , लोहरा और कई छोटी - बड़ी आदिम जनजातियों को अधिकांश गैर आदिवासी जिसमें सवर्ण और पिछड़ी जाति के लोग शामिल हैं , जंगली , असभ्य और अत्यंत पिछड़ा कहकर न केवल सम्बोधित करते थे.  बल्कि उनकी हँसी भी उड़ाते थे . गैर आदिवासी समाज के कई लोग आदिवासियों के शिक्षित होने यहाँ तक कि उनके पढ़ने लिखने की उम्मीद नहीं रखते थे.आजादी के पूर्व आदिवासी अपने पूर्वजों की जमीन बचाने के लिये अकेले ही विद्रोह करते थे. अंग्रेजों और जमींदारों से टकराते थे .उस समय से लेकर अब तक आजादी के बाद भी जमीन बचाने के संघर्ष में आदिवासियों को किसी भी समुदाय ने साथ नहीं दिया है.कुरमी- महतो जो अभी आदिवासी बनने के लिये लालायित हैं और झारखण्ड के पूर्वी क्षेत्र में रेल चक्का जाम किया गया. उन्होंने आदिवासियों के विद्रोह में कोई सहायता नहीं दिया है. आदिवासियों के विद्रोह में उनकी कोई भूमिका नहीं है , न पहले थी , न अभी है.

     कुरमी - महतो किसी भी तरह से न शरीर की बनावट से , न रूप रंग से , न भाषा - संस्कृति से , न रहन - सहन , न धार्मिक जीवन से , न बात - व्यवहार से , न ही रोजमर्रा की जीवन शैली से आदिवासियों से मेल खाते हैं. कुरमी महतो बिलकुल ही भिन्न हैं. आदिवासियों और कुरमी महतो समुदाय में रत्तीभर भी समानता नहीं है. कुरमी महतो समुदाय के लोग हमेशा आदिवासी हितों के खिलाफ काम करते हैं. इसका ज्वलंत उदाहरण यह है कि इस समुदाय ने पेसा कानून 1996 द्वारा दिये गये आदिवासी आरक्षण का जबरदस्त विरोध किया. इन लोगों ने संसद , विधानसभा और कोर्ट - कचहरी हर जगह पंचायत चुनाव में आदिवासियों के आरक्षण का विरोध किया है.

     इतिहास गवाह है कि आज तक कुरमी महतो ने कभी भी अपने को आदिवासियों के स्तर का नहीं माना है. कुरमी महतो हमेशा अपने को सवर्ण समुदाय के समकक्ष मानता है . इन लोगों ने अपने को ऊँची जाति का बताने के लिये अखिल भारतीय कुरमी क्षत्रिय महासभा का गठन किया था . स्व . विनोद बिहारी महतो ने कुरमी शिवाजी समाज का गठन किया था. अधिकांश कुरमी महतो अपने को शिवाजी का वंशज बताते हैं ताकि उनकी गिनती उच्च वर्ग में हो. झारखण्ड , बिहार और उत्तर प्रदेश के कुरमी महतो समुदाय ने हमेशा खुद को ऊँची जाति का माना है.भारत सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिश को लागू करते हुए पिछड़े वर्ग को आरक्षण देना आरम्भ किया तो कुरमी महतो पिछड़े वर्ग में शामिल हो गये और यदा - कदा पिछड़े वर्ग का आरक्षण बढ़ाने के लिये आन्दोलन करते रहते हैं

आदिवासियों के लिये बड़े दुर्भाग्य की बात है कि कुरमी महतो जैसी जातियाँ केवल आदिवासियों के आरक्षण का लाभ उठाने के लिये आदिवासी बनना चाहते हैं.कुरमी महतो जाति के नेता और कार्यकर्ता अभी इसी मुहिम में जुटे हैं और रेल रोड जाम कर रहे हैं.  इनके आदिवासी बनने से आदिवासियों के सभी अधिकारों पर कुरमी महतो जाति का कब्जा हो जायेगा और मूल आदिवासी समाप्त हो जायेंगे  उराँव , मुण्डा , खड़िया , हो , संताल के साथ - साथ अन्य आदिम जनजातियों की तुलना में कुरमी महतो , लोग ज्यादा चालाक हैं और हर क्षेत्र में आगे हैं. कुरमी महतो हर तरह का व्यवसाय करते हैं और उनका व्यावसायिक दिमाग है , वे किसी से भी बातचीत कर सकते हैं , उनमें पिछड़ापन नहीं है , वे मिलने - जुलने से नहीं झिझकते हैं. कुरमी महतो लोगों की भाषा - संस्कृति , जीवन पद्धति और चरित्र सवर्ण या उच्च वर्ग के हिन्दुओं की तरह है. वे हिन्दू समाज के अधिक निकट हैं. कुरमी महतो समुदाय की तुलना आदिवासी समाज से कभी हो नहीं सकती है . वे पढ़ने - लिखने , बोलने , तर्क करने , व्यवसाय करने , रोजगार सृजन करने में आदिवासियों से कई गुणा आगे हैं और कुरमी महतो लोगों का दबदबा न केवल  झारखण्ड में बल्कि बिहार , बंगाल और उत्तर प्रदेश तक में है.

     यदि कुरमी महतो समुदाय को आदिवासी का दर्जा मिलता है तो मूल आदिवासी जल्द ही समाप्त हो जायेंगे क्योंकि वे उनके सामने बिलकुल ही नहीं टिक पायेंगे. आदिवासियों की सारी नौकरी पर कुरमी महतो कब्जा कर लेंगे क्योंकि वे बौद्धिक रूप से मूल आदिवासियों से अधिक सक्षम हैं और उनकी सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी अधिक नौकरी पाने के लिये उन्हें मदद करेगी. आदिवासियों के लिये जो आरक्षण है उसी में वे हिस्सेदार बन जायेंगे. उराँव , मुण्डा , संताल , हो और खड़िया युवा लोग ताकते रह जायेंगे । इनको नौकरी मिलेगी ही नहीं. सभी नौकरियों में चाहे वो केन्द्र सरकार की हो या राज्य सरकार की , हर जगह , हर नौकरी में कुरमी महतो बाजी मार लेंगे क्योंकि वे अपनी नस्ल से सवर्ण हिन्दू समाज के समान हैं और उनकी बौद्धिक क्षमता भी उनके समान ही है । उदाहरण के लिये राजस्थान के मीणा लोग हैं जिन्हें 1954 में आदिवासी का दर्जा दिया गया और आज अधिकांश नौकरियों में उनका बोलबाला है. राजस्थान के मूल आदिवासी बहुत पीछे हैं । शिक्षा के क्षेत्र में आदिवासियों के लिये जो आरक्षण है, उसमें भी कुरमी महतो समुदाय के लोग भर जायेंगे. मेडिकल , इंजीनियरिंग और प्रबन्धन से सम्बन्धित विद्यालयों और महाविद्यालयों के आरक्षित कोटे में आदिवासी के नाम पर कुरमी महतो ही भर जायेंगे. कुरमी महतो की व्यावहारिक बुद्धि , सामाजिक सम्पर्क मूल आदिवासियों से कई गुणा अधिक है .

     कुरमी महतो जो अभी झारखण्ड के पूर्वी क्षेत्र में सिमटे हुए हैं , एक बार आदिवासी का दर्जा प्राप्त करने के बाद छोटानागपुर और संताल परगना के अनुसूचित अर्थात् आदिवासी क्षेत्र में फैलना आरम्भ करेंगे और आदिवासियों की जमीन को खरीदेंगे. आदिवासी जमीन में बसेंगे , व्यवसाय करेंगे , व्यापार करेंगे , ठीकेदारी करेंगे और रोजगार को भी हड़पेंगे. मूल आदिवासी कुछ नहीं कर पायेगा. कुरमी महतो को अनुसूचित क्षेत्र के तेली बनिया का भी साथ मिलेगा और सभी गैर आदिवासी समुदाय मिल - जुलकर आदिवासियों को समाप्त कर देंगे. उत्तर प्रदेश और बिहार से भी कुरमी महतो लोग आयेंगे और झारखण्ड के अनुसूचित क्षेत्र में बस जायेंगे. कोई उन्हें रोक नहीं पायेगा क्योंकि उन्हें आदिवासी होने का लाभ मिलेगा. एक दिन ऐसा भी होगा कि अनुसूचित क्षेत्र के मुखिया , प्रमुख , जिला परिषद के सदस्य और अध्यक्ष , विधायक और सांसद कुरमी महतो ही बनेंगे. कुरमी महतो आदिवासी बनकर आदिवासियों का सबकुछ लूट लेंगे. आदिवासियों को निर्णय करना होगा कि वे बचना चाहते हैं या खत्म होना चाहते है.  बचने का एक ही रास्ता है आदिवासी एकता और शांतिपूर्ण जन आन्दोलन करने की जरूरत है.

संकलन, कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा।

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