प्रकृति आदिवासी साहित्य सृजन का मूल स्रोत हैं।


 भाषा संवाद का उचित माध्यम है. सभ्यता की शुरुआती दौर में भाषा का उद्भव और विकास होना लाजमी था क्योंकि भाषा ही एक माध्यम है जिसके द्वारा एक दूसरे के विचार भावना को दूसरे के समक्ष सरल तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है. किसी भी भाषा के वाचिक और लिखित समूह को साहित्य कह सकते हैं. दुनिया की सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषा में मिलती है. इस दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है. इनके साहित्य में मौखिक परंपरा प्रचलित है. यह परंपरा परदादा,दादा से पोता- पोती तक मौखिक  हस्तांतरण किया जाता है. विशेषतः विदेशी इतिहासकार इसे  भारतीय आदिवासी साहित्य का विशिष्ट अध्याय मानते हैं. संताली साहित्य लेखन की शुरुआत 18 वीं सदी से मानी जाती है. जब ब्रिटिश काल में विदेशी लेखक, भाषाविद भारत आए और यहां अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा का  प्रसार-प्रचार करने लगे. बदले में शासन को सरल बनाने के उद्देश्य से यहां के आदिवासी दर्शन, साहित्य, कला-संस्कृति के प्रति प्रेम व रुचि दिखाया. कालांतर में इसके महत्व को समझने लगे और तब प्रशासन में रुचि कम और लेखन व शोध में अधिक समय देने लगे थे. तत्कालीन  संताल परगना के कमिश्नर विलियम जार्ज आर्चर को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है. वे जब संताल परगना का कमीशनर बनकर आए, तब सरकारी काम-काज में रुचि कम, आदिवासी लेखन कार्य में व्यस्त रहे. शोध करने पर इस प्रकार अनेक विदेशी विद्वान एवं लेखक, भाषाविद मिलेंगे, जिन्होंने संताली भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उनमें प्रमुख  L.O. Skrefsrud,  P.O.Bodding, Sten konow, Robert Carstairs,  Ashley Eden, जो संताल परगना  जिला के प्रथम उपायुक्त के द्वारा अनेक पुस्तकें लिखी एवं प्रकाशित की गई थी. इस लेखन विशेषता यह थी कि साहित्य  वाचिक या मौखिक न होकर लिखित रूप में परिवर्तित हुए. जिसकी वर्तमान स्वरूप आपके पास उपलब्ध हैं. इस प्रकार आदिवासी साहित्य का मौखिक से लिखित रुप  देने  का श्रेय विदेशी लेखकों, भाषाविदों एवं साहित्यकारों को जाता है.  लेकिन अपवाद रुपसे कुछ अंग्रेजी लेखकों में देशज भाषा की अज्ञानता से आदिवासी दर्शन के मुल भावनाओं या तथ्यों का नीतिगत व्याख्यान करने में असफल रहे.वे चाहते थे कि आदिवासी दर्शन साहित्य में पाश्चात्य संस्कृति की छाप छोड़ते हुए जाए,पर ऐसा संभव नहीं हो सकी. इस वहकावे या लोभ लालच में कभी भी आदिवासी लेखक, साहित्यकार अपने मुल स्रोत से भटके नहीं, वल्कि वे उस हुकुमत के खिलाफ कलम उठाना उचित समझा और स्वयं अपना साहित्य लिखना शुरू किया. 

कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा।

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