विश्व आदिवासी दिवस : न्याय की प्रतीक्षा में देश की आदिवासी समुदाय

 


आज देश और दुनिया के आदिवासी अपनी  अस्मिता एवं पहचान को जीवित रखने के लिए  विश्व आदिवासी दिवस मनाते हैं। दरअसल इस आयोजन का मुख्य स्रोत संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़े हैं। विश्व इतिहास के घटनाक्रमों से ज्ञात होता हैं,कि संयुक्त राष्ट्र संघ की द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 24 अक्टूबर 1945 को हुई। 30 अक्टूबर 1945 ईस्वी को भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बना। समाप्ति के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य ने यह महसूस किया कि 21वी सदी में विश्व के विभिन्न देशों में रहने वाले मूलनिवासी अर्थात किसी भी देश में रह  रहे  वहां के आदिवासियों समुदायों की अपनी अस्तित्व, पहचान, अधिकार, बेरोजगारी एवं  उपेक्षा और बाल मजदूरी जैसे समस्या से ग्रसित है इस समस्याओं के हल ढूंढने के लिए त्वरित कार्रवाई करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक उच्च स्तरीय उप आयोग का गठन किया। जिससे यूनाइटेड नेशन वर्किंग ग्रुपऑन इंडीजीनस पीपल के नाम से जाने जाते हैं। इस आयोग की पहली बैठक 9 अगस्त 1982 ईस्वी को संपन्न हुई थी इस बैठक में मूल निवासियों की पहचान, अधिकार एवं उनकी समस्या का निराकरण करने हेतु एक विस्तृत प्रारूप तैयार किया गया। इस प्रारूप को यूनाइटेड नेशन वर्किंग ऑन इंडीजीनस पीपल के 11 वे अधिवेशन में प्रस्तुत किया गया और सर्वसम्मति से पारित करते हुए हैं 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस घोषित किया गया। यह अधिवेशन 9 अगस्त 19 94 ईस्वी में स्वीडन की राजधानी जिनेवा में आयोजित की गई थी। तब से 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता रहा है। 

परन्तु आज के संदर्भ में  जब आदिवासी  या विश्व आदिवासी दिवस की बात हो तो जयपाल सिंह मुंडा का जिक्र न हो, अधुरी सी प्रतित होती है. भारतीय संविधान के लागू होने से ठीक 12 वर्ष पहले यानी 1938 ईस्वी में जयपाल सिंह मुंडा ने एक साहसी कदम लेते हुए आदिवासी महासभा की स्थापना की थी. ताकि वे अपने हक और अधिकार के लिए स्वतंत्र भारत में अपना पक्ष मजबूती के साथ रख सके.  जब यह संविधान सभा के सदस्य बने. वे अपने ऐतिहासिक भाषण में श्री मुंडा ने कहा" मैं उन लाखों लोगों की ओर से बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं, जो सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं, जो आजादी के अनजाने लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं और जिनको पिछड़ी, बैकवर्ड, ट्राइब्स, प्रिमिटिव ट्राइब्स, क्रिमिनल ट्राइब्स और ना जाने क्या-क्या कहा जाता है. परंतु मुझे अपनी आदिवासी होने का गर्व है" 

उन्होंने संविधान सभा में इस बात पर पुरजोर विरोध किया था कि संविधान में आदिवासियों के लिए " जनजातीय "  शब्द का व्यवहार न हो वल्कि " आदिवासी" हो. आज भारत आजादी के 75वीं  वर्षगांठ मना रहा है. और देश के सर्वोच्च संविधानिक पद पर एक आदिवासी महिला विराजित है. क्या अब उन लाखों आदिवासियों को अपने हक और अधिकार मिलेगा ? जिसका जिक्र जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में की थी. वर्तमान केंद्रीय जनजातीय मामले के मंत्री श्री अर्जुन मुंडा ने 23.4.2010 में लोकसभा सदन में वैसे ही विचार व्यक्त किए थे जैसे 75 वर्ष पहले जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों के हित में किए थे. संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े में  कहा गया है कि आज दुनिया के अलग-अलग देशों में 33 करोड़ आदिवासी रह रहे हैं, भारत में लगभग 705 जनजातीय समूह है. परन्तु भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ के नाम पर जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया है, उसमें स्पष्ट रूप से इस बात का इनकार किया गया है कि भारत में कोई भी व्यक्ति मूलनिवासी नहीं है, यानी भारत में कोई भी आदिवासी समुदाय नहीं है. सवाल यह है क्या वर्तमान की केन्द्रीय सरकार इस विषय पर पुनर्विचार करेंगे कि संविधान में संशोधन कर " जनजातीय" के जगह पर "आदिवासी" शब्द  को प्राथमिकता दी जाय.  क्योंकि आदिवासी समुदाय आज भी न्याय की प्रतीक्षा में खड़े हैं, इस  उम्मीद के साथ की लोकतंत्र की न्याय किसी विशेष वर्ग धर्म जाति या आधार पर ना होकर संवैधानिक मूल्यों के आधार पर मिलती है.

कालीदास मुर्मू, संपादक आदिवासी परिचर्चा।

Post a Comment

0 Comments