जरूरत है आदिवासी समुदायों में मंथन की


विगत दिनों राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री श्री बाबुलाल माराण्डी  रांची के एक कार्यक्रम में संबोधित करते हुए यह बयान दिया था कि जनजातीय लोग जन्मजात से ही हिंदू है, इस बयान को लेकर राज्य में भूचाल जैसी स्थिति हो गई है राज के विभिन्न सामाजिक संगठन और धार्मिक संगठनों के द्वारा इसका कड़ा प्रतिक्रिया किया जा रहा है, गौरतलब है कि आदिवासी मूल रूप से प्रकृति पूजा है और अपने प्रकृतिवादी विचारों को व्यक्त करते हुए प्रकृति की उपासना भी करती है, हुई है सृष्टि के जल जंगल जमीन पेड़ पौधे पत्थर और उन पंचतत्व की भी पूजा की जाती है, यह स्पष्ट कर दिया कि हिंदू और आदिवासी में अनेक फर्क हैं, पहला की आदिवासी मूर्ति पूजा नहीं है जबकि हिंदू मूर्तिपूजक होते हैं उनके देवताओं की एक निश्चित स्वरूप और आकार हैं। इनमें सबसे बड़ी अंतर आदिवासी समाज में साड़ियां पूजने की परंपरा है, समाज में चाहे धार्मिक अनुष्ठान हो यह सामाजिक अनुष्ठान हरिया इनके लिए पवित्र और अमृत तुल्य है। किसके बिना कोई भी अनुष्ठान संपन्न नहीं होते हैं। इस संबंध में तथ्यों को अध्ययन करने पर पता चलता है कि 10 जुलाई 1966 ईस्वी में बिहार सरकार ने एक पत्र जारी कर इस बात को स्पष्ट किया है कि आदिवासी हिंदू नहीं है, वल्कि प्राकृतिक पूजक है, यह पत्र बिहार सरकार ने तत्कालीन केंद्रीय सरकार के सभी विभाग को प्रेषित किया था। दूसरी पत्र जनगणना आयोग पटना बिहार द्वारा 22 दिसंबर 2000 को एक पत्र के माध्यम से जिला के सभी उपायुक्त को यह निर्देश दिया गया था कि प्रकृति पूजक जो सरना धर्म के अनुयायियों की सर्वेक्षण कर एक रिपोर्ट आयोग के समक्ष प्रस्तुत करने का निर्देश दिया था। इसके पूर्व बता दें कि ब्रिटिश कालीन जनगणना के समय आदिवासियों वासियों को हिंदू धर्म सेअलग रखा गया था। उनके लिए अलग कोड का भी प्रावधान था एमिनिस्ट कहलाता था।


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