मातृभाषा अभिव्यक्ति व संस्कृति संवाहक का सशक्त माध्यम

 


भाषा संवाद का माध्यम होने के साथ-साथ ज्ञान का प्रसार-प्रचार करने का भी उत्तम साधन है। किसी भी समाज की विकास का पैमाना उसके भाषा-संस्कृति पर आधारित है। अगर किसी  समाज की भाषा उन्नतिशील है, तो निश्चित रुप से वह विकास की चरम पर है, वैसे भाषाविद का मानना है, कि भाषा के विकास के साथ ही समाज की विकास का संबंध है। निश्चित रुप से  संताली भाषा के साथ भी वैसे ही जैसे भारत या विश्व अन्य भाषाओं के साथ जुड़ा हुआ है। पिछले दिनों झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम जिला स्थित चाकुलिया प्रखण्ड के नगर सभागार में 33वें अखिल भारतीय संताली लेखक संघ के दो दिवसीय अधिवेशन संपन्न हुई। जिसमें राज्य के परिवाहन व आदिवासी  मामले के मंत्री श्री चंपाई सोरेन बतौर मुख्य अतिथि के रूप में अधिवेशन का शुभारंभ किया। उद्घाटन समारोह के उद्घोष में अपना वक्तव्य रखते हुए कहा कि संताली विश्व के समृद्ध भाषाओं में से एक है। इनकी  अपनी अलग लिपि व पहचान है, जिससे हमें आत्मसात् करने की आवश्यकता है। अगर भाषा जीवित रहेगा तो हमारा अस्तित्व भी वना रहेगा। आदिवासी संताल समाज की संस्कृति, रीति-रिवाजों विशुद्ध रूप से प्रकृति से जुड़े हुए है। लेखक इन संस्कृति को जीवित व संजोए रखने का काम निस्वार्थ भाव से करता है। लेखकों के लेखन में समाज के हर पहलू को उजागर करने का प्रयास किया जाता रहा है। जो प्रसंसनीय है। आज देश और दुनिया तेजी से बदल रही है है सतर्कता बरतने की जरूरत है। कहीं इस  भाग दौड़ की रफ़्तार में हम अपनी मातृभाषा व संस्कृति को बचाया रखने में चूक न हो जाए, इससे ध्यान देने की आवश्यकता है। आज युवा पीढ़ीयों में लेखन के प्रति प्ररेति कर उससे  रुचिकर विषय के रुप में अपना योगदान सुनिश्चित करें। अधिवेशन के प्रथम सत्र में " नई शिक्षा नीति 2020 के परिप्रेक्ष्य में झारखण्ड राज्य में ओल चिकि के साथ संताली भाषा का कार्यान्वयन" पर विस्तृत चर्चा हुई। इस परिचर्चा में प्रो० गणेश मुर्मू, विभागाध्यक्ष, संताली विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय हजारीबाग। श्री घोराचंद मुर्म एवं मोहन चंद्र वास्के ने विशेष रूप से अपनी बात रखी।

 



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