पशुधन को आभार व्यक्त करने का त्यौहार है सोहराय ।

 


झारखण्ड  प्रदेश के जनजातीय के बीच मनाते जाने वाले पर्व में सोहराय एक महत्वपूर्ण पर्व है।यह पुरा प्रदेश में हर्ष - उल्लास के साथ ग्रामीण इलाकों में मनाया जाता है, सोहराय महज किसानों का पर्व नहीं, बल्कि यह पशुधन को पूजे जाने वाला पर्व है। आप यह भी कह सकते हैं, कि यह पर्व पशुधन को समर्पित होता है। कृषि कार्य में फसल को लगने और समटने  में सहयोगी रहे हर, जुआठ, मेर-रक्सा, गाय, बैल, काड़ा, भैंस इन सभी को आभार व्यक्त तथा धन्यवाद देने का पर्व है सहोराय। सोहराय पर्व के पंच दिन पहले से ही मवेशियों के सिंग में तेल लगाया जाता है। पर्व के पहले दिन गाय बैल को नहलाकर ,हल -जुआठ को धोकर, चावल की गुंडी से इन  सबकी पूजा किये जाने का रिवाज आदि समय से चली आ रही है। धान के खेतों से धन धान काट कर लाया जाता है। और उनका मांडर, अर्थात् हार बनाते हैं।  इनकी पूजा करने के बाद उनके सींग में सिंदूर से गोल-गोल छल्ले बनाते हैं। और मांडर को उनके माथे में बांधा जाता है। गोहाल में गोहाल पूजा की जाती है। इसी दिन से गाय बैल और फसलों को समर्पित गान बोला जाता है। इसे अहिरा कहा जाता है। इसे मांदर ढाल-ढोल के साथ के साथ घर घर में जाकर गाते, बजाते और नाचते हैं। पुरा वातावरण मांदर के थापों और अहिरा गान से गूंजता रहता है। लोग खुशी में सराबोर होते हैं। सोहराय के अन्तिम दिन बलद खुटां होता है।

इस पर्व को मनाने के पीछे की कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार ठाकरान की हंसली हड्डी के पास के मैल से बने हांस-हांसली पक्षियों ने विशाल जल- राशि पर तैरते हुए फिरना के झाड़ में अपना घोंसला बनाया था, जहां हांस- हांसलि ने दो अण्डे दिया थे, जिससे दो मानव शिशु उत्पन्न हुए थे। तब ठाकुर जिउ , अर्थात् सृष्टिकर्ता की चिंता हुए हुई, कि उन दोनों मानव - शिशुओं के आहार की व्यावस्था की जाय। उस समय स्वरगपुरी में आइनी- बाइनी कपिला गायें थी। ठाकुर जिउ ने माराङ बुरु को अपने  पास बुलाकर कहा कि उन गायों को धरती पर ले जाया जाय। तब तक जल- राशि की सतह पर स्थित केंचुए द्वारा जल राशि के अंदर से उठाती गायी मिट्टी से जल राशि की सतह पर स्थित कछुए की पीठ पर पृथ्वी बना दी गाती थी। माराङ सुरू स्वरगलोक में ही थे। लेकिन वे धारती पर काल्पनिक तंतु तोड़े सुताम के जरिए आसानी से आवागमन कर सकते थे। 

ठाकुर जिउ के आदेश के मुताबिक , माराङ बुरु बहुत अनुनय विनय कर नर- मादा आइनी- बाइनी कपिला गायों को धरती पर ले आते और उनको जंगल में रखा गया। साथ ही साथ धरती पर माराङ बुरू ने कौनी, बांधा आदि कुछ मोटे अनाजों के बीज जहां-तहां छींट दिये। कालक्रम में मानव दंपति हाड़ाम पिलचू बूढ़ी और कपिला गायों की संख्या में वृद्धि हो गई। मानव की संतानें हाथों से चलित हल बाकुक नाहेल से जमीन जोतकर अनाज उपजाना पहले ही सीख चुकी थी। उनसे कहा कि वे आखिरकार हस्त चालित हलों से कब तक जमीन जोतते रहेंगे? वे जमीन से नर-मादा कपिला गायों को ले आये। उनमें से उन्होंने नर गायों, अर्थात् बैलों से हल चलाना सीखने और मादा गायों का दुध खाने-पीने की निसीहत दी। इसके बाद वे मानव उन गायों की खोज में निकल पड़े। वहां झुंड में उन्हें वे गायों के एक झुंड में दिख गयीं। इसलिए वे गायों को जंगल से हांककर ले आये और वहां उन पशुओं को तेल-सिंदूर लगाकर स्वागत किया। उनका परिजन किया और उनको गोहाल , अर्थात् मवेशियों के घर में रखा गया। दुसरे दिन उन मवेशियों को गोहाल से निकालकर चलने के लिए चरवाहों के साथ निकालकर भेज दिया गया। और गोहालों में अपनी जगहों पर आ गये। धूप-दीपों के साथ उस दिन रात्रि -जागरण किया गया। फिर तीसरे दिन बौलों को अपने-अपने दरवाजे पर निकालकर और उनको सजा-धजाकर गली में गाड़े गये खूंटों में बांधकर नाचाया जाता है।

ऐसा कहा जाता है, कि सोहराय पर्व प्रारंभ उसी दिन से हुआ है। इस पर्व के प्रथम दिन गोट पूजा, दुसरा दिन गोहाल पूजा, तीसरा दिन खूंटाउ, अर्थात् बैलों को खूंटने का, चौथा दिन जाले का और पांचवां दिन बेझा तुञ का उत्सव मानाया जाता है। 



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