इतिहास झारखण्ड का : दामिन- ई- कोह और झारखण्ड का उदय

 


संताल विद्रोह, बिरसा उलगुलान, कोल विद्रोह आदि संघर्ष के इतिहास की प्रेरणा से झारखण्ड में अस्मिता और पहचान के लिए कई दशकों तक संघर्ष हुए और अंततः भारतीय संविधान के अन्तर्गत झारखण्ड नये राज्य का उदय हुआ। झारखण्ड में आर्थिक शोषण और सामाजिक सांस्कृतिक पहचान के खतरे से मुक्ति के लिए अलग राज्य की परिकल्पना सामने आयी। यह संकल्प दुहराया गया था, कि अलग राज्य के गठन से वर्षों से दमन का पीड़न झेल रही शोषित पीड़ित जातीयताओं को आत्मनिर्णय का अधिकार प्राप्त होगा। उनकी आशाओं आकांक्षाओं को मूर्त रूप दिया जायेगा। दामिनी-ई-कोह में हुए संघर्ष की श्रद्धांजलि देते हुए सिद्ध-कान्हू ,चांद भैरव और हजारों शहीदों के अधूरे सपने पूरे होंगे। गरबी किसानों को महाजनों शोषण से मुक्ति दिलायी जायेगी। उनके खेतों में फसलें लहल हारेंगे। सरकार उन्हें आधारभूत सुविधाओं मुहैया करायेंगी, झारखण्ड राज्य के गठन बाद ऐसी आशा की गयी थी कि  झारखंड सरकार विकास के हर पहलू पर संजीदा से विचार कर विकास की प्रक्रिया प्रारंभ करेगी, ऐसी आशा की गयी थी कि सरकार अतीत के गोरव पूर्ण  इतिहासों से प्रेरण ग्रहण करेंगी और भविष्य की रुपरेखा तैयार करेगी, यह माना गया था झारखण्ड के पुरूषों के आदर्शों एंव सिद्धांतों पर स्वणिम झारखण्ड के सामाजिक-सांस्कृतिक आर्थिक धरोहरों की सुरक्षा और विकास का इंतजाम किया जायेगा। परन्तु यह किसे पता था कि झारखंड बनने के बाद इसके शासक मलेशिया,अस्टेलिया और बौंकाक में विकास की औधारण ढूंढने की कोशिश करेंगे और ब्रिटिश काल की व्यापारिक सामरिक राजधानी राजमहल विकास की आस लिए सिसकती रही जायेंगी। शायद झारखण्ड के शासकों के यह भरोसा न था कि बंगाल में व्यापारिक गतिविधियों को नियंत्रित करने वाली राजमहल और इस पास की सीमाओं में अब भी वह संभावना व्याप्त है। अंग्रेजों ने इसी जमीन पर आकर राजस्व का इंतजाम किया था और हमारी स्वतंत्र सरकार राजस्व घाटे के चिंता से पीड़ित हैं। अंग्रेजों शासन काल में ही यह संभावना व्यक्त की जा रही थी कि झारखंड क्षेत्र में छोटे-छोट पूंजीपति जमींदार और व्यवसायी मिलकर आंतरिक उपनिवेशवाद को जन्म दे रही है, तभी तो दामिन-ई- कोह जैसे क्षेत्र में गरीब किसानों पहाड़िया जनजातियों और अन्य पिछड़ी छोटी-छोटी जातियों के विकास के लिए कोई योजना नहीं बनती। सरकार खनिजों का दहन तो करना चाहती परंतु उससे प्राप्त राजस्व से अन्य संसाधनों के विकास पर ध्यान नहीं देती। झारखंड कृषि प्रधान क्षेत्र है, और यहां की आबादी में कार्य कुशलता है, इस कार्य कुशलता को पूर्ण विकसित मानव संसाधन में तब्दील करने की पहल क्यों नहीं होती, तर्क तो यह है कि 150 वर्ष में न समस्याएं समाप्त हुई ना सरकारों की कार्यशैली बदली सिर्फ दामिन-ई-कोह  की बात करें तो यह सब दिखता है, वही जंगल वही पहाड़ वही सुखी बंजर खेत और जमीनों पर अधिपत्य की महाजन की कोशिश कर्ज में डूबते किसान और पुलिस अत्याचार अखिर क्या परिवर्तन हुए।



Post a Comment

0 Comments