प्रकृति, आदिवासी और सरना धर्म का निहितार्थ




पृथ्वी पर स्वत: पनपने वाले वे सभी  जीव -जंतु या पेड़-पौधे प्रकृति अंर्तगत आते हैं। इसके अलावे जल, जंगल और जमीन, धरातल के ऊपर  एवं धरातल के नीचे पाये जाने वाले सभी खनिज संपदा भी इसी श्रेणी में आते हैं। सदियों से इन सब से आदिवासियों निकटतम संबंध रहा है। दोनों स्व-अस्तित्व की अवधारणा का अनुपालन करते हुए जीविकापार्जन करते हैं। सन्तुलन के इस  अवसर को पर्यावरणविद् ने "प्रकृतिवादी " संज्ञा दी है। जीविका के लिए अपने आवश्यकता के अनुरूप प्रकृति संपदाओं से लेकर पुरा करना और उसे संरक्षण कर सुरक्षित रखना आदिवासियों की अनुपम शिष्टाचार है। बात यहीं समाप्त नहीं हुई, बल्कि उनकी  नियमित रुप से प्रकृति की पूजा करना दिनाचार्य है। यह परंपरा सदियों से आदिवासी समुदाय में  चली आ रही है। युग और समय में  परिवर्तित होते हैं। इन विषम परिस्थितियों में संघर्ष करते  हुए  यह समाज कभी भी अपने को  प्रकृति से अलग नहीं कर सका।  इतना नियमित और संतुलित समाज जो कभी प्रकृति की वेबाजह नष्ट-भ्रष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रही। आदिवासियों की प्रकृति के प्रति यह सद्भावना ने विकसित समाज के लोगों के लिए  विश्विक समस्याएं पैदा कर दी है। वैसे समाज जो प्रकृति की संपत्ति को उपभोग की वस्तु मानते हैं। इसके ठीक विपरीत आदिवासी प्रकृति की पूजा व उपासना करना धार्मिक व सांस्कृ है विरासत के तौर पर देखते हैं। 
कोमोबेश विश्व के सभी देशों में आदिवासी मूल निवासी के तौर पर रह रहे है। निश्चित तौर पर उन्होंने आत्मनिर्भर बनाने के लिए अनेक संघर्ष से गुजरना पड़ता है। उनकी भाषा व संस्कृति को नष्ट कर एक नयी संस्कृति विरासत बनाए जाने के लिए विशेष अभियान विश्व में चल रही है। परन्तु  आधुनिकता की चकाचौंध दुनिया में आदिवासी अपने पहचान व स्व-अस्तितव को बचाएं रखने के लिए सर्व शक्तिमान प्रकृतिवाद के संन्निद्ध में रहना ही उचित समझे है। 
सरना धर्म एक प्रकृतिवादी विचारधारा की अभिव्यक्ति है। जिसके केन्द्र बिन्दु पर सर्व शक्तिमान  निराकार सृष्टिकर्ता की पूजा होती है। यह पेड़,पत्थर, जल व आकाश व धरातल भी हो सकते है। संक्षेप में कह सकते है, कि  सरनाआदिवासियों के धार्मिक आस्था से जुड़ा हुआ बिषय है। इसमें सरना स्थल में प्रकृति के प्रति  समर्पित आस्था के साथ  साखुआ        ( सारजोम) वृक्ष को साख्क्षी मानकर अपने इष्टतम  माराङ बुरु व उनके अनुषंगी देवी-देवताओं की पूजा की परंपरा सदियों से चली आ रही है। सरना धर्म की उत्पत्ति सखुआ के पेड़ पर तीर लगने हुई है। जानकार बताते हैं, कि जब आदिवासी समुदाय के लोगों माराङ बुरु व धर्म की में परिक्रमा करने लगे और वे तक हर गए, तब आकाशवाणी हुई " तुम अपने धनुष से तीर को पुर्व की दिशा छोड़ो वह तीर जिस पेड़ पर भेदकर समा जाय, हम वहीं विराजमान है" वह पेड़ था सखुआ। जिससे संताली में " सारजोम" जो तीर को अपने में समाहित कर लिया है। आप देखेंगे कि सरना धर्म के लोग सखुआ पेड़  को सबसे पवित्र व शुभ मानते हैं। सभी शुभ कार्य में इनका व्यवहार किया जाता है।
सरना धर्म आदिवासियों के धार्मिक आस्था का प्रतीक है। इसके वैगर इनकी परंपराओं व पहचान अधुरी रहा जाती है। यही कारण है कि  विभिन्न सामाजिक अनुष्ठानों में सबसे पहले सरना स्थल में पूजा-अर्चना की जाती है।


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