खोजबीन: संताली भाषा लेखन का उद्गम स्थल बेनागाड़िया मिशन


 छात्र जीवन से ही  ऐतिहासिक जगह देखने या घमुने की प्रवृति मुझ में थी। पर विषय की निर्दिष्ट नहीं थी। छात्रावास जीवन में बेनागाड़िया मिशन प्रेस का नाम खूब कानों में सुनने को आती थी।बेनागाड़िया मिशन कहां है ? मन मेंं यह जिज्ञासा हमेशा बनी रही। सौभाग्य से मुझे पद्मश्री प्रो दिगंबर हांसदा के सानिध्य में  भ्रमण करने का सुअवसर प्राप्त हुई। इस दरमियान उनके साथ मुझे दुमका शहर आने का अवसर मिला। अचानक मेरे मन जिज्ञासा हुई वेनागारिया मिशन तो दुमका में अवस्थित है। मैं वेहिचक सर से कहा हमलोग जब दुमका आए हैं,तो मुझे बेनागारिया मिशन दिखा दीजिए। सर बड़ी आसानी से मेरे बातों को मन गए। रानीश्वर स्थित भारत सेवाश्रम संघ में शिक्षा एवं साहित्य   संस्कृति सम्मेलन समापन कर दुसरे दिन बेनागाड़िया के लिए निकले। दुमका-रामपुरहाट मुख्य सड़क से लगभग पांच किलोमीटर दूर वेनागाड़िया मिशन लगभग एक सौ एकड़ के भु-भाग में फैला यह दुमका जिला अन्तर्गत शिकारीपाड़ा प्रखण्ड में आते है। मिशन परिसर में प्रवेश करते जैसे ही आगे बढ़ने लगे सामने एक शिलालेख दिखाई दी। जिसमें संताली में " एभेन जेर " नाम से उल्लेखित है, ठीक उसके निचले हिस्सा में जगत सोरेन, सिराम सोरेन व रघु मुर्मू के नाम अंकित है,यह वे व्यक्ति हैं, जिन्होंने मार्च 1863 ई० में ईसाई धर्म को अपनाया था।  संयोग से बेनागाड़िया के सटे गांव आमचुआ के एक संताल भाई मिले  जिसका नाम जगदीश सोरेन है, जो महाविद्यालय में अध्ययनरत हैं,ने बताया कि अंग्रेज साहब लार्स ओल्सेन स्क्रेफस्रड ( Lars Olsen Skrefsrud) द्वारा 1860 ई॰ में स्थापित किया गया था। वे एक धर्म  प्रचारक थे  परन्तु भारत में वे एक नाॅवे जियन लूथरन मिशनरी और भाषा शोधकर्ताओं थे। इस मिशन के द्वारा सर्व प्रथम संताली भाषा पर पुस्तक प्रकाशित किया गया था, जिसका शीर्षक था " A Grammar of the santali language " स्क्रेफ साहब इसके लेखक थे तथा यह 1873 ई॰ में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद यह से प्रकाशन का सिलसिला जारी रहा।  दुसरी प्रकाशन L.O. Skrefsrud missionary and Social Reformer among the santali people of santal parganas. तथा Skrefsrud सहाब की तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक " मारे हापड़ाम पुथी" ,जो इस मिशन से छापकर 1887 ई॰ में प्रकशित हुई थी। यह कल्याण गुरु के सहयोग व मार्गदर्शन से लिखा गया है।  इसमें धार्मिक व सांस्कृतिक रुप से सुसज्जित है। यही कारण है,कि वर्तमान समय में भी यह पुस्तक प्रासंगिक है। संताल साहित्य प्रेमी इससे पढ़ने के लिए लालाहित है। परन्तु पस्तक  की उपलब्धता दुर्लभ है। इस पुस्तक में अनेक ऐसी विशिष्ट लेखन है, जिसके बारे में अनभिज्ञ है, जिसमें अनगिनत प्रश्न के उत्तर छिपी हुई है। यह पुस्तक उपलब्ध होने से  संताली साहित्य, धार्मिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में गुणात्मक सुधार ला सकती है।
कालीदास मुर्मू, सम्पदक, आदिवासी परिचर्चा।


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