भारत के जनजातीय समाज में स्त्री शक्ति की मान्यता


दुनिया कितना बदल जाए, लेकिन आदिवासी समाज में महिलाओं के प्रति जो अधिकार और कर्तव्य को लेकर सोच है, वह कमोबेश कायम है. यह जन्म से लेकर जीवन के अंत तक बना रहता है. आदिवासी समाज में लड़की का जन्म एक सुखद क्षण माना जाता है. लड़कियां " सयानी बेटी" के रूप में घर, परिवार और समाज में स्वीकार की जाती है. कन्या भ्रूण हत्या न के बराबर है.अत: आदिवासी क्षेत्रों में लड़कियों की सघन उपस्थिति देखी जाती है.

आदिवासी स्त्रियों के नेतृत्व क्षमता को फूलो-झानो, फूलमनी और सिनगी दई जैसे वीरांगनाओं में साफ़ तौर पर देखा जा सकता है. सिनगी दई ने चम्पू दई और कईली दई के नेतृत्व में मध्य काल में तुर्क-पठानों का मुकाबला किया था.पड़हा राजा की बेटी सिनगी दई ने रोहतासगढ़ के किले की रक्षा करने के लिए पुरुष वेश में पारंपरिक हथियारों के जरिए महिलाओं को साथ लेकर रणनीति बनाई थी.

इतिहास की बात करें  तो भारत में अंग्रेजी राज कायम होने के पश्चात कई विद्रोह और आंदोलन आदिवासी क्षेत्रों में हुए. विद्रोहों और आंदोलनों में में महिलाएं बढ़-चढ़कर भाग लेती थी. तिलका मांझी की अगुवाई में चले विद्रोह में फूलमनी मझिआइन ने अंग्रेजी सभा का मुकाबला किया. 1831 के कोल विद्रोह के समय सिंगराय बहनों ने अपनी निडरता का परिचय दिया. वहीं जून 1855 में भोगनाडीह में सिदो-कान्हू,चांद-भैरव में हूल का आगाज़ किया गया था. इस समय उनके बहनों फूलों-झानो ने आंदोलनकारियों और विद्रोहियों के हौसले को बनाए रखा. उनकी वीर गाथा आज तक घर-घर में सुनी जाती है. 

आदिवासी समाज की कुछ परंपराएं स्त्री बोधक है. आदिवासी समाज के पर्व-त्योहार स्त्रियों के सुखद जीवन की कामना से जुड़े होते हैं. यहां हर पर्व प्रकृति और धारती से जुड़ा है. भारतीय समाज के ढांचे में धर्म,राज, संपत्ति सब कुछ पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है.दुसरी तरफ आदिवासी समाज में स्त्रियों की स्थिति और उनका अलग जीवन दर्शन व शैली एक सुंदर समाज का विकल्प देने का अकसर देती है आदिवासी समाज में महिलाएं ही घर-परिवार के मामले में निर्णायक भूमिका निभाई है.

आदिवासी समाज के जानकार कहते हैं कि आदिवासी समाज में स्त्री -पुरुष में भेदभाव नहीं है. पुरुष घर के काम में हाथ बटाते हैं. जब खेती की बात बात है तो खेत में पुरुष हल चलाते हैं. तो वहीं महिलाएं रोपनी,निकाई करती है. जब फसल तैयार हो जाती है दोनों मिलकर फसल काटते हैं. इससे परिवार की एकता सहानुभूति और सहयोग का गंठजोड़ बना रहता है. यह परिवार को जोड़े रखता है. 

एक अच्छी बात यह है कि आदिवासियों में दहेज़ प्रथा नहीं है.वधू की तलाश में लड़का पक्ष वाले ही अगुवे के साथ लड़की के घर जाते हैं और शादी की बात चलाते हैं. शादी-विवाह में स्त्री पक्ष को विशेष अधिकार दिया गया है. लड़की की "हां"और "ना"  का  बहुत महत्त्व होता है. दोनों पक्ष के लोग बैठते हैं, तब समाज के लोग तय करते हैं कि इस घर में एक सदस्य की कमी हो जायेगी. इसलिए इसकी भरपाई करानी होगी. यह भरपाई दो जोड़ी बैल व जरुरत पड़ने पर लड़की के घर में खेती के काम में सहयोग देकर की जाती थी.

संकलन: कालीदास मुर्मू संपादक आदिवासी परिचर्चा।

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