11 नवंबर 1908 : जब जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा के लिए बना था छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम


अंग्रेज अपने शासनकाल के दौरान भारत में अनेक प्रशासनिक एवं भूमि सुधार अधिनियम बनाए. अंग्रेज चाले जानें और भारत आजाद के बाद भी वे अधिनियम आज भी जीवित हैं. ऐसा ही एक अधिनियम भारत के झारखंड (तत्कालीन बिहार) के इतिहास में 11 नवंबर 1908 एक ऐतिहासिक तिथि के रूप में दर्ज है. इसी दिन ब्रिटिश सरकार ने “छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908” (Chotanagpur Tenancy Act – CNT Act, 1908) को लागू किया था.  हालांकि तत्कालीन  ब्रिटिश सरकार  ने  इस अधिनियम को 1905 में  बना दिया था. यह  कानून झारखंड के आदिवासियों की जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा हेतु बनाया गया था. इस कानून ने आदिवासियों को उनकी पैतृक भूमि पर अधिकार सुनिश्चित किया और बाहरी शोषकों से सुरक्षा प्रदान की.

 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: - 

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजों ने छोटानागपुर क्षेत्र (तत्कालीन दक्षिण बिहार ) में ज़मीन बंदोबस्ती की प्रक्रिया शुरू की. उस दौरान जमींदारों और महाजनों ने विभिन्न धोखाधड़ी और दबाव के माध्यम से आदिवासियों की ज़मीनें हड़प लीं.

इस अन्याय के खिलाफ कई विद्रोह हुए :

 1.कोल विद्रोह (1831-33) :  कोल विद्रोह के मुख्य कारण ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों के कारण पारंपरिक भूमि स्वामित्व का विघटन और आर्थिक शोषण थे. इसके परिणामों में अंग्रेजों द्वारा विद्रोह का दमन, भविष्य के आदिवासी विद्रोहों को प्रेरणा और कोल जनजाति के लिए भूमि स्वामित्व की एक नई प्रणाली का निर्माण शामिल है, जिसने भविष्य के झारखंड आंदोलन की नींव रखी.

2.संताल हूल (1855-56) : हजारों संताल सदस्यों के द्वारा किया गया विद्रोह 1855-56 में पूर्वी भारत में ब्रिटिश शासन के अधीन संथाल जनजाति ईस्ट इंडिया कंपनी (1757-1858). यह आंदोलन स्थानीय साहूकारों और जमींदारों के शोषण और बंगाल प्रेसीडेंसी में ब्रिटिश प्रशासन की नीतियों के प्रति एक प्रतिक्रिया थी.

3.बिरसा मुंडा का उलगुलान (1899–1900) :  आंदोलन, जिसे 'उलगुलान' (महाविद्रोह) कहा जाता है, 1899-1900 के बीच अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ आदिवासी शोषण के विरुद्ध शुरू हुआ था. इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य 'जल, जंगल और जमीन' की रक्षा करना और मुंडाओं के लिए स्वायत्त शासन ('अबुआ राज') स्थापित करना था. बिरसा मुंडा ने सामाजिक सुधारों पर भी जोर दिया और अंततः 1908 में छोटेनागपुर काश्तकारी अधिनियम पारित हुआ, जो आंदोलन की एक बड़ी सफलता थी.

इन आंदोलनों ने ब्रिटिश सरकार को झकझोर कर दिया और अंततः सरकार को आदिवासियों की ज़मीन की रक्षा के लिए विशेष कानून लाना पड़ा। परिणामस्वरूप 11 नवंबर 1908 को छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम लागू करना पड़ा था. जिससे संक्षिप्त में सीएनटी एक्ट कहा जाता हैं.

 इस अधिनियम के मुख्य उद्देश्य: 

1. आदिवासी / किसानों (रैयतों) की जमीनों की रक्षा करना.

2. गैर-आदिवासियों द्वारा भूमि हड़पने पर रोक लगाना.

3. किरायेदारी प्रणाली में न्याय सुनिश्चित करना.

4. परंपरागत रैयती हक को कानूनी मान्यता देना.

कानून की प्रमुख विशेषताएँ : 

1. भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध: –  इस अधिनियम का सबसे  प्रमुख विशेषताएं हैं, भूमि  हस्तांतरण  पर पुर्ण प्रतिबंध है. आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को बेचा, गिरवी या हस्तांतरित नहीं किया जा सकता.

2. रैयत अधिकार की सुरक्षा :– परम्परागत रूप से जो जमीन आदिवासियों में पीढ़ियों से किसी आदिवासी परिवार के पास रही है, उस पर उनका स्थायी मालिकाना हक माना गया है.

3. राज्य सरकार की अनुमति आवश्यक : – विशेष परिस्थिति या अति आवश्यक प्रयोजन में अगर किसी कारणवश भूमि का स्थानांतरण करना भी हो, तो इसके लिए सरकार से पूर्व अनुमति लेनी पड़ती है.

4. कृषि उपयोग की भूमि की परिभाषा: –यह कानून स्पष्ट करता है कि किस भूमि का उपयोग कृषि, आवास या औद्योगिक प्रयोजनों में किया जा सकता है.

कानून का प्रभाव:- CNT Act ने झारखंड के आदिवासी समाज को कानूनी शक्ति प्रदान की. यह  कानून आदिवासियों के भूमि सुरक्षा का संविधानिक कवच कहा गया हैं. बाहरी पूंजीपतियों और भूमि माफियाओं की मनमानी पर रोक लगी.आदिवासियों के आत्मसम्मान और अस्मिता की रक्षा हुई.कानून के कारण झारखंड में भूमि अधिग्रहण के मामलों में आज भी सावधानी बरती जाती है.

आज की प्रासंगिकता :- आज जब विश्व में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की लहर तेज़ है, तब भी CNT Act झारखंड के ग्रामीण-आदिवासी जीवन के  सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक अस्मिता के रक्षार्थ  पहरेदारी करती  है यह कानून.  निस्संदेह यह स्पष्ट रुप से कहा जा सकता है कि यह कानून झारखंड के आदिवासियों के धरोहर को जीवंत रखने में महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं. हाल के वर्षों में इसे संशोधित करने की कोशिशें हुईं, लेकिन जनआंदोलन और विरोध के कारण ये प्रयास विफल हुए. 

संकलन: कालीदास मुर्मू, संपादक।

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