आइए सबसे पहले इस आंदोलन की जड़ को गंभीरता से समझें। कुड़मी/कुरमी जाति समुदाय जो झारखंड, बंगाल और ओडिशा में फैला है. ये लोग एसटी स्टेटस की मांग कर रहे हैं, ताकि आरक्षण और अन्य लाभ हासिल किया जा सकें. 2004 में झारखंड सरकार ने इसकी सिफारिश की थी. लेकिन केंद्र ने इससे ठंडे बस्ते में डाल रखा। वहीं कुड़मी/कुरमी जाति समुदाय लगातार साल दो साल के अंतराल में रैली, प्रदर्शन,आंदोलन करके जहाँ एसटी स्टेटस और कुरमाली भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहा है. इससे पहले इस पर सोच विचार करना होगा कि क्या यह वाकई कुड़मी/कुरमी जाति समुदाय की स्वतंत्र आवाज है ? नही! यह राजनीतिक पार्टियों की चाल है,जो इस जाति समुदाय के कुछ अगुआ नेताओं को आगे करके इससे संचालित कर रही हैं. भाजपा गठबंधन केंद्र में सत्ता संभाल रही है, जबकि झारखंड में झामुमो-कांग्रेस की सरकार है. ये सभी पार्टियां जो बाहर से एक-दूसरे पर कीचड़ उछालती हैं,लेकिन अंदर से एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं.
असल मुद्दा यहाँ जनता के दर्द हैं—भ्रष्टाचार, महंगाई,बेरोजगारी, घोटाला,विकास योजनाओं की लूट. केंद्र हो या राज्य सरकार दोनों ही कॉरपोरेट औधोगिक घरानों, खनन माफिया और लुटेरों के साथ सांठ-गांठ में डूबी हैं. झारखंड की खनिज संपदा को लूटा जा रहा है, लेकिन आम आदमी को क्या मिल रहा है ? बेरोजगारी की दर आसमान छू रही है, महंगाई से रोटी महंगी हो गई है और कल्याणकारी योजनाओं की राशि कमीशनखोरी और घोटालों में गायब हो जाती है. भाजपा के नेता परिवारवाद में डूबे हैं, कांग्रेस के तो भाई-भतीजावाद की मिसालें जगजाहिर हैं, और झामुमो भी इससे अछूता नही रहा है. ये पार्टियां जनता के सवालों से घिरी हुई हैं, इसलिए वे जातीय आंदोलनों को हथियार बनाती रही हैं. कुड़मी/कुरमी जाति आंदोलन इसका ताजा उदाहरण है—आदिवासी समुदाय का तार्किक विरोध होने के बावजूद इसे भड़काया जा रहा है. आदिवासी संगठनों ने स्पष्ट कहा है कि कुड़मी/कुरमी को एसटी में शामिल करने का विरोध किया जाना चाहिए, क्योंकि यह मूल आदिवासियों के अधिकारों पर डाका है. फिर भी राजनीतिक पार्टियां इससे क्यों बढ़ावा दे रही हैं ? क्योंकि इससे युवाओं और आम जनता का ध्यान भटकता है—जाति के नाम पर लड़ाओ, ताकि असली लुटेरों पर सवाल न उठाया जा सके.
पश्चिम बंगाल के जंगलमहल में भी यही खेल चल रहा है,जहाँ टीएमसी,भाजपा और अन्य पार्टियों के कुड़मी नेता प्रदर्शन कर रहे हैं. यह योजनाबद्ध है। राज्य के बाहरी ब्यूरोक्रेट्स और माफिया गिरोह मिलकर समुदाय के अगुआओं को मोहरा बनाते हैं। इस तरह का बार-बार ऐसा प्रयोग होता आया है—एक बार ओबीसी आरक्षण,दूसरी बार एसटी मांग. लेकिन फायदा किसका ? पार्टियों का जो वोट बैंक बनाती हैं. कुड़मी/कुरमी जाति समुदाय के लोग जो कृषि और मेहनत से जुड़े हैं, इन राजनीतिक शातिरों के जाल में फंस रहे हैं. इतिहास गवाह है कि पहले क्षत्रिय स्टेटस की मांग अब एसटी यह सब सामाजिक संरक्षण के नाम पर राजनीतिक लाभ लेने के लिए हो रहा है. आदिवासी समुदाय के लोगों का कहना है कि कुड़मी/कुरमी जाति समुदाय आदिवासी नही हैं, बल्कि संपन्न ओबीसी हैं और उनकी मांग से असली आदिवासियों के हक-अधिकार छिना जाएगा.
यह आंदोलन जनता के लिए नही बल्कि सत्ता के लुटेरों के बचाव के लिए है. जब जनमानस सरकारों के खिलाफ खड़ा हो रहा है, तो ये पार्टियां जातीय आग भड़काती हैं. कुड़मी/कुरमी जाति समुदाय के अगुआ जो खुद को नेता कहते हैं,असल में इन राजनीतिक पार्टियों के पिट्ठू हैं. अपने निजी स्वार्थ और लालच में कुड़मी/कुरमी जाति समुदाय के लोगों को गुमराह कर रहे हैं। यह कटु सत्य है कि भारतीय राजनीति अब जनसेवा नही, बल्कि साजिशों का अड्डा बन चुकी है. अगर कुड़मी/कुरमी जाति समुदाय को न्याय चाहिए तो पहले इन राजनीतिक दलालों से मुक्ति पाएं. अब समय आ गया है कि जनता जागें और इन साजिशकर्ताओं को बेनकाब करे. नही तो जातीय विभेद की आग में पूरा समाज झुलस जाएगा.
श्री लक्ष्मीनारायण मुंडा, रांची।

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