आधुनिक समय में आदिवासी देशज ज्ञान की प्रसांगिकता

 

दुनिया में आदिवासी अपने इलाके के मूल निवासी के रूप में जाने जाते हैं. इनकी इतिहास सदियों पुराना है. यह बाकी दुनिया से अलग-अलग वे सीमित क्षेत्र में रहते थे. अपनी परंपरा और संस्कृति के साथ जीते हैं. जब वक्त बदला तो उन पर भी आधुनिकता का प्रभाव पड़ा. इससे वे भी प्रभावित हुए. उनकी सोच से लेकर जीवन शैली तक में बदलाव हुआ. इसके बाद भी वे बने रहे. इसके पीछे बड़ी वज़ह है देशज ज्ञान. देशज ज्ञान उनकी बड़ी ताकत है. इसमें सबकुछ समाहित है. इसमें विचार, जीवन शैली, परंपरा, संस्कृति,प्रथा और वह तमाम चीजें हैं, जो उनके जीवन से जुड़े हैं. यह उनके समुदाय की जीवन जीने की कला और शैली को दर्शाता है. यह ज्ञान समुदाय के लोगों को एक दिन में नहीं मिलता है. रोजमर्रा की जिंदगी में जब विशेष दिन आता है, तब लोगों को इसे जानने और समझने का अवसर मिलता है. जहां लोग किसी अवसर पर जमा होते हैं. 
देशज ज्ञान अलिखित है. यह सुनना और समझा जा सकने वाला ज्ञान है. यह सुना और समझा जा सकने वाला ज्ञान है. यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहता हैं. यह समय के साथ समाज की मांग के अनुरुप विकसित होने वाला ज्ञान है. इसमें नेगाचारी पद्धति से लेकर होड़ोपेथी, मडैत परंपरा, प्रकृति पूजा, ग्राम व्यवस्था,सेंदरा और सरहुल है. जब सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती है, तब लोग खुद ही इसे जान लेते हैं.इसके अनुसार अपना काम करते हैं.जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ते रहते हैं. साथ में देशज ज्ञान  जड़ में जमा रहता है. यही वजह है कि आदिवासी कहां भी रहें, लेकिन जब परंपरा की बात आती है, तब वे गांव दौड़ चले आते हैं. 
वास्तव में देखा जाय तो सबसे बड़ा ज्ञान का केंद्र धुमकुड़िया है. धुमकुड़िया उरांव जनजाति के बीच एक पारंपरिक शैक्षणिक संस्थान है. यह संस्थान सांस्कृतिक, पारंपरिक ज्ञान का सृजन केंद्र, दर्शन, सामाजिक जुड़ाव और पारंपरिक प्रशासनिक व्यवस्था है. इन सबसे ऊपर जीवित रहने की जीजिविषा और पूर्वजों द्वारा बनाए गए नियम और व्यवस्था को सीखने का केंद्र है. यह केंद्र आदिवासी समाज में भिन्न भिन्न हैं. संताल आदिवासीयों में गितिज-ओड़ा तो वही गोंड में गोटुल, बोड़ो में सेलनेडिंगो है. जहां शिक्षा का तरीका मौखिक है. और आज भी प्रशस्त है. इससे आज भी सहजता से अपनाया जाता है. नयी पीढ़ी भी इसे उत्साह के साथ स्वीकारती हैं. अस्तित्व आदिवासीयों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक है. वहीं धुमकुड़िया टिकाऊ विकास के जनजातीय जीवन के विभिन्न घटकों के लिए मंच प्रदान करता है. जीवन के इन सवालों को धुमकुड़िया महत्वपूर्ण स्थान देता है. जहां समाज के बुद्धिजीवी वर्ग साथ में बैठकर विमर्श करते हैं. साथ ही भूत की शैक्षणिक विरासत को वर्तमान और भविष्य की शिक्षा से जोड़ने का संकल्प लेते हैं. 

भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों के आदिवासीयों ने स्थानीय परिवेश व प्रकृति के साहचर्य में अपनी ज्ञान- परंपरा को विकसित किया है. अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए आदिवासी पांच हजार वर्षों से निरंतर संघर्षरत हैं. आदिवासी जनों का सीधा जुड़ाव जल, जंगल, जमीन, जैव-विविधता, जुड़ी-बूटियों, जीव-जंतुओं और जल स्रोतों से होता है. इसकी छाप आज भी मिलती है. वे जहां भी रहते हैं. वहां के वातावरण में हरियाली का असर अधिक होता है. यह देशज ज्ञान ही है, जो उन्हें याद दिलाता है, कि जिंदा रहना है, तो प्रकृति को बचाना होगा. तभी वजूद रहेगा. 


संकलन: कालीदास मुर्मू संपादक,आदिवासी परिचर्चा। 


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