हूल दिवस के अवसर पर हो ओलचिकि लिपि से पढ़ाई की घोषणा


 हूल दिवस के पावन अवसर पर संताली स्काॅलर कालीदास मुर्मू ने कहा कि संताल भारत की एक प्रमुख जनजाति है.संताल मुख्य रूप से गणतंत्र भारतीय राज्यों झारखंड,पश्चिम बंगाल,उड़ीसा,बिहार और असम में रहते हैं. वे नेपाल और बांग्लादेश में भी कुछ संख्या में निवास कर रहे हैं.संताली इनकी मातृभाषा है.इसके अलावे संताल बांग्ला,उड़ीया,हिन्दी एवं असमिया भाषा का प्रयोग करते हैं. संताली भाषा की यह विशेषता है कि इसकी अपनी एक सर्वमान्य लिपि है ओलचिकि. परन्तु संतालो की मूल पहचान यह है कि वें प्रकृति पूजक होते हैं. श्री मुर्मू ने बताया कि संतालो को अपने पूर्वजों के रीति-रिवाज के अनुसार आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनुष्ठान करते हुए देखा जा सकता है. पिलचु हड़ाम - पिलचू बुड्ढी संताल के आदि पुरखा है|जाहेर धार्मिक अनुष्ठानों का केंद्र है. यहां माह: मोड़ें, जानताड़,बाहा,आसाड़ियां एवं हरिआड़ जैसे पूजा समूह में होती है.

कालीदास मुर्मू ने बताया कि इन संताल आदिवासी परिवार में दो भाईयों का जन्म हुआ. जिसे हम सिध्दो- कान्हु मुर्मू के नाम से जानते हैं. जिसने अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों को तीर धनुष के आगे झुकने के लिए मजबूर कर दिया था.  सिदो- कान्हु मुर्मू का जन्म भोगनाडीह नामक गांव में 1815 एवं 1820 ईस्वी में हुआ था . संताल विद्रोह में प्रमुख भूमिका निभाने वाले इन वीरों के दो भाई भी थे- चांद मुर्मू और भैरव मुर्मू. इनके अलावा दो बहने भी थी- फूलों मुर्मू और झानो मुर्मू|इन छह भाई-बहनों के पिता का नाम चुन्नू मुर्मू था. श्री मुर्मू ने कहा कि सिद्धो- कान्हू मुर्मू ने आपने समाज और माटी के शोषण को रोकने के लिए 1855- 56 ईस्वी में ब्रिटिश सत्ता,साहूकारों,व्यापारियों एवं जमींदार के खिलाफ एक विद्रोह की शुरुआत की. जिसे भारतीय इतिहास में संताल हूल के नाम से जाना जाता है. इस विद्रोह का नारा था अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो.इस विद्रोह ने अंग्रेजी शासन की नींव को उखाड़ फेंकने का काम किया. मजबूरन अंग्रेजों को अपनी प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार करते हुए बीरभूम एवं भागलपुर जिला से काटकर  संताल परगना जिला का गठन करना पड़ा और दुमका को मुख्यालय बनाया गया. 

कालीदास मुर्मू ने कहा कि भारतीय जन आन्दोलन के इतिहास में ऐसी पहली घटना हुई जिसमें एक ही समाज एवं परिवार के छ: भाई-बहनों ने माटी के खातिर प्राणों की आहुति दे दी. आज इन दो भाइयों की यादों में हुल दिवस मनाया जा रहा है, परन्तु आज के दौर में भी इन महान नायकों के इस सवाल " आबुआ दिसोम- आबुआ राज" का जवाब कहीं दिखता नहीं. अदभ्य साहस एवं वीरता के प्रतीक मातृभूमि  के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले इन महान नायकों के सम्मान में मातृभाषा की पढ़ाई ओलचिकि लिपि में हो,इन महान योद्धाओं को इससे अच्छी श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती है. इस सुअवसर राज्य सरकार को ओलचिकि लिपि से पढ़ाई की घोषणा कर इन महान योद्धाओं को सच्ची श्रद्धांजलि देनी चाहिेए. 

गौतम चटर्जी, वरीय संवाददाता, दुमका।

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