क्यों 21वीं सदी में भी चौराहें पर खड़े हैं आदिवासी

 


आजादी के 75 वर्ष बीत गए पर आदिवासी समाज  विखरावपन के शिकार से छूट नहीं निकल पाए है। इस संदर्भ में निस्संदेह कहा जा सकता है कि  21वीं सदी के दौर में भी यह समाज राजनीति, आर्थिक, धार्मिक-सांस्कृतिक दंद्व  के विचरण से गुजर रहे है। गौरतलब है, कि पिछले दिनों झारखण्ड राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री श्री बाबूलाल मरांडी के एक बयान ने आदिवासी समुदाय के लिए एक चुनौती भरी सवाल खड़ी कर दी। सूत्रों के मुताबिक़ रांची के वनवासी कल्याण केन्द्र के आरोग्य भवन में  दो  दिवसीय "जनजाति  संवैधानिक अधिकारों के संगोष्ठी" के समापन समारोह  में पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि " जनजाति समाज संविधान में भी और व्यवहारिक रुप में हिन्दू है" इस बयान पर  देश के आदिवासी समुदाय ने कड़ी आपत्ति जताई है और सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया रुकने का नाम नहीं ले रही है। इससे यह प्रतित होने लगी है, कि आधुनिक के इस दौरान में आदिवासी बीच चौराहे में खड़े नजर आ रहे है। यह बहुत ही  अपमानजनक टिप्पणी है। परन्तु  यह शोध का विषय है कि आदिवासी समुदाय में  प्रतिभा सम्पन्न प्रतिनिधित्व का क्षमता रहते हुए भी हमें क्यों अपने विचारों व भावनाओं को मजबूती के साथ पेश नहीं कर सकते है। दुसरे के कहने या आदेश का अनुपालन अपने समाज के हित को सर्वोपरि न मान कर अन्य के सेवा में तत्पर रहना पसंद करने लगे हैं। जो हमें पुर्व मुख्यमंत्री ने कर दिखाया है। आप कितने लोग इस बात से सहमत हैं कि अपनी पहचान व अस्तित्व स्वंय को ही संचेत एवं संगठित रहना पड़ता है। 


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