जल, जगंल व जमीन के पहरेदार है, देश के आदिवासी।

 


एक आंकड़े के मुताबिक विश्व के नवें देशों में आदिवासी रहते हैं।  इंटरनेशनल वर्क ग्रुप फॉर इंडिजीनस अफेयर्स  की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में लगभग 37 करोड़ आदिवासी रहते हैं। अगर हम भारत की बात करें तो यहां 10.4 करोड़ आदिवासी निवास करते है। जिसमें गोंड,भील, संताल, मुंडा, बोडो,लेपचा,कोलु, बहरिया,मीण इत्यादि प्रमुख है। अर्थात विश्व की एक चौथाई आदिवासी भारत में रहते हैं। यह रहने वाले अधिकांशतः आदिवासी समुदाय जंगल पर आश्रित रहते है। रांची से सटे बुंडू प्रखण्ड अन्तर्गत खुदीमाडी निवासी रानासिंह पहान बताते हैं,कि गांव महिला व पुरुष वर्ग दिन भर में जंगल से लकड़ी, फल-फूल, दातुवान, पत्ते इकठ्ठे कर बाजार में बचते हैं। और उस पैसा से जरुरतमंदों समान की खरीद करते हैं। कमोवेश झारखण्ड के आदिवासी बहुल इलाकों में आपको ऐसा ही ग्रामीण परिवार मिलेगे, जिनके आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।और वे अप्रत्यक्ष रूप से जंगल या जंगल से उत्पादित वस्तुओं पर निर्भर रहती है। इस प्रकार से जनजातीय के लिए वन उनका जीवनदायिनी है।और प्राकृतिक विरासत के रुप में उनकी रक्षा करते हैं। वनों के साथ उनके प्रतीकात्मक संबंधों ने ही उनकी स्वतंत्रता या उन्मुक्तता की नींव डाली थी। आदिवासी और वनों के बीच जो परस्पर निर्भरता थी, वह उसकी उस एकान्तता का आधार थी, जिसकी अभिव्यक्ति के रुप में आदिवासी पूरी दुनिया से दुनिया से अलग-थलग रहकर भी स्वतंत्र जीवन यापन करते हैं। इस वैश्विकरण के दौर में आदिवासियों की रक्षार्थ वन अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता है ।यह जरूरी है कि उन मामलों को एक साथ सामने रखे जाते जो जंगल के दांव पर लगे हैं। उनमें प्रमुख है- प्रकृति के साथ न्याय-वानस्पतिक और वन्य पशुओं संबंधी तथा आने बारे पीढ़ी के साथ न्याय जिससे दीर्घ काल तक प्राकृतिक साधन बने रहे। वन नीति का लक्ष्य अन्य जीवों और उत्पादनों के साथ आदिवासी समुदाय की रक्षा करना ही है। नीति में होने वाले किसी भी भावी सुधार का सबसे पहला उद्देश्य लोगों के साथ न्याय करना होना चाहिए और बाद में प्रकृति और भावी पीढ़ी के साथ न्याय करना होना चाहिए।इसका अर्थ यह भी नहीं है कि प्रकृति के साथ न्याय करने का स्थान दूसरा है या पहले से कुछ कम है। कानून उसी प्रकार परस्पर अंतर संबंधित है, जैसे पारिस्थितिकीय व्यवस्था ( Eco System) । फूल-पौधौं व जीवों की रक्षा का एक ही तरीका है और वह तरीका लोगों अर्थात् आदिवासियों की रक्षा करते हुए । यदि उनकी रक्षा होगी, विशेष रुप से वनों के रक्षक के रुप में, तो प्राकृतिक वन को बचाते जा सकेंगे और प्रकृति के साथ न्याय हो सकेगा। 

 

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